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Read this article in Hindi to learn about:- 1. Meaning and Definitions of Organization 2. Characteristics of Organization 3. Types 4. Bases 5. Problems 6. Approaches.
Contents:
- संगठन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Organization)
- संगठन की विशेषताएँ (Characteristics of Organization)
- संगठन के प्रकार (Types of Organization)
- संगठन के आधार (Bases of Organization)
- संगठन सम्बन्धी दृष्टिकोण या उपागम (Approaches Regarding Organization)
- संगठन की समस्याएँ (Problems of Organization)
1. संगठन का अर्थ एवं परिभाषाएँ (Meaning and Definitions of Organization):
विभिन्न विद्वानों के द्वारा संगठन के भिन्न-भिन्न अर्थ प्रस्तुत किए गए हैं ।
‘संक्षिप्त ऑक्सफोर्ड शब्दकोश’ (Concise Oxford Dictionary) के अनुसार संगठन से अभिप्राय ‘किसी वस्तु का व्यवस्थित ढाँचा बनाना’ (To Give Orderly Structure to) अथवा ‘किसी वस्तु का आकार निश्चित करना एवं उसको कार्य करने की स्थिति में लाना’ (To Frame and put into Working Order) है ।
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इस प्रकार किसी वस्तु के अन्योन्याश्रित भागों को सम्बन्धित करने के कार्य को संगठन की संज्ञा दी गई है जिससे कि प्रत्येक भाग को विशिष्ट कार्य मिल जाये और सम्पूर्ण भागों से सम्बन्ध रखता हुआ वह उस कार्य को सम्पन्न कर सके ।
विभिन्न विद्वानों ने संगठन की परिभाषा निम्नलिखित रूपों में प्रस्तुत की है:
प्रो. मूने के अनुसार- ”संगठन किसी सामान्य उद्देश्य की प्राप्ति के लिये किया जाने वाला मानवीय सम्मेलन का एक रूप है ।”
एल. डी. ह्वाइट के शब्दों में- ”संगठन का अर्थ कर्मचारियों की उस व्यवस्था से है जो किसी निर्धारित उद्देश्य की पूर्ति हेतु किया जाता है और यह व्यवस्था कार्यों एवं उत्तरदायित्वों को आपस में बाँटकर की जाती है ।”
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लूथर गुलिक के मतानुसार- “संगठन सत्ता का औपचारिक ढाँचा है जिसके द्वारा किसी निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिये कार्यों को विभाजित तथा निर्धारित किया जाता है और उनका समन्वय किया जाता है ।”
पिफनर ने अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- ”संगठन का अर्थ व्यक्तियों एवं व्यक्तियों के बीच तथा वर्गों एवं वर्गों के बीच सम्बन्धों से है जो इस प्रकार आयोजित किए जाएँ कि व्यवस्थित श्रमविभाजन किया जा सके ।”
एम. मार्क के शब्दों में- ”संगठन उस ढाँचे का नाम है जो शासन के प्रमुख कार्यवाह तथा उसके सहायकों को सौंपे गए कार्यों को पूर्ण करने के लिए बनाया जाता है ।”
विलियम शुल्ज़ के अनुसार- ”एक संगठन उन आवश्यक मानवों को सामग्री सा धन स्थान एवं अन्य आवश्यक चीजों को एक क्रमबद्ध तथा प्रभावशाली ढंग से जुटाने में है जिससे कि वांछित उद्देश्य की प्राप्ति हो सके ।”
डिमॉक एवं डिमॉक के मतानुसार- ”संगठन संरचना तथा मानव-जीवन दोनों ही है ।….. संगठन को केवल एक ढाँचा मानना और जिन लोगों से वह बनता है उनकी उपेक्षा करना पूर्णतया अवास्तविक तथा अयथार्थवादी बात होगी ।”
जॉन. एम. गाँस के कथनानुसार- ”किसी कार्य में संलग्न व्यक्तियों तथा समूहों के प्रयत्नों तथा क्षमताओं का सम्बन्ध ही संगठन है, जिसमें कम-से-कम संघर्ष से वांछित उद्देश्य की प्राप्ति हो सके और जिनके लिए वह कार्य किया जा रहा है तथा जो उस उद्यम में सम्मिलित हैं उन्हें उसमें अधिकतम संतोष प्राप्त हो सके ।”
मिलवर्ड के शब्दों में- ”संगठन परम्परा से सम्बन्धित पदों के ढाँचे का एक तरीका है जो हस्तान्तरित सत्ता की श्रेणी से सम्बन्धित रहते हैं ।”
2. संगठन की विशेषताएँ (Characteristics of Organization):
उपर्युक्त परिभाषाओं के विश्लेषण के उपरान्त संगठन की निम्नलिखित विशेषताएँ बतायी जा सकती हैं:
(1) संगठन की स्थापना कुछ विशेष लक्ष्यों या उद्देश्यों की पूर्ति हेतु की जाती है ।
(2) संगठन कार्यकारी नेतृत्व के निर्देशन में व्यक्तियों का एक समूह होता है ।
(3) संगठन के माध्यम से व्यक्तियों में औपचारिक व अनौपचारिक सम्बन्ध स्थापित होते हैं ।
(4) संगठन अधिकारों व दायित्वों की जटिल संरचना है ।
(5) संगठन श्रम-विभाजन, अधिकारों एवं दायित्वों के विभाजन के आधार पर कार्य सम्पादन करता है ।
(6) संगठन में सन्देश का आदान-प्रदान निरन्तर होता रहता है ।
(7) संगठन के अभाव में प्रबन्धक अपना कार्य व्यवस्थित ढंग से नहीं कर सकता है ।
(8) संगठन का रूप परिस्थितियों एवं आवश्यकता के अनुसार बदलता रहता है ।
3. संगठन के प्रकार (Types of Organization):
सामान्यतया संगठन को दो भागों में विभक्त किया जाता है:
(1) औपचारिक संगठन,
(2) अनौपचारिक संगठन ।
(1) औपचारिक संगठन (Formal Organization):
‘औपचारिक संगठन’ के लिये प्रयुक्त होने वाले अन्य नाम निम्नलिखित हैं:
‘यान्त्रिक संगठन’ (Mechanical Organization), ‘इंजीनियरिंग संगठन’ (Engineering Organization) एवं ‘संरचनात्मक-कार्यात्मक संगठन’ (Structural-Functional Organization) । इनमें संगठन का स्वरूप व्यवस्थित ढंग से रूपांकित किया जाता है ।
प्रत्येक स्तर पर अस्थि अधिकारों कार्यों एवं उत्तरदायित्वों को स्पष्ट रूप से नियमावली के माध्यम से निर्दिष्ट किया जाता है । संगठन के सदस्यों के व्यवहार में समन्वय स्थापित किया जाता है तथा प्रत्येक सदस्य के कार्यों व शक्तियों को स्पष्ट कर दिया जाता है ।
औपचारिक संगठन में नियमों के माध्यम से यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि कौन किसकी नियुक्ति करेगा ? आज्ञाएँ किस प्रकार प्रसारित होंगी किन्हीं विशेष कार्यों के लिये कौन उत्तरदायी होगा आदि । औपचारिक संगठन वैधानिक एवं स्थायी होता है ।
इन संगठनों में अधिकार उच्च स्तर से निम्न स्तर की ओर प्रत्यायोजित होते हैं । इस प्रकार का संगठन एक यन्त्र के समान वैज्ञानिक शुद्धता तर्कसंगत संरचना कार्य-निष्पादन के सर्वोत्तम मार्ग एवं विभिन्न भागों को एकीकृत करने पर ध्यान केन्द्रित करता है ।
(2) अनौपचारिक संगठन (Informal Organization):
अनौपचारिक संगठन प्राय: ‘सामाजिक-मनोवैज्ञानिक संगठन’ (Social-Psychological) एवं ‘मानवतावादी संगठन’ (Humanitarian Organization) होते हैं । अनौपचारिक संगठन से अभिप्राय: उन व्यक्तिगत तथा सामाजिक सम्बन्धों से है जो व्यक्तियों के एक-दूसरे के साथ संगठित होने के उपरान्त स्वत: उदय हो जाते हैं ।
संगठन के अनौपचारिक स्वरूप के प्रमुख प्रवर्तक एल्टन मेयो एवं उनके सहयोगी रहे हैं । उन्होंने ‘वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी’ के हॉथोर्न संयंत्र के सम्बन्ध में प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि जब कुछ व्यक्ति दीर्घकाल तक मिल-जुल कर कार्य करते हैं तो उनमें भावनात्मक एवं वैयक्तिक सम्बन्ध विकसित हो जाते हैं ।
यही अनौपचारिक सम्बन्ध कहलाते हैं । अनुभव के आधार पर भी यह सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक संगठन में प्राय: लोग औपचारिक सीमाओं से निकलकर अनौपचारिक सामाजिक संगठन का निर्माण करते हैं । संक्षेप में कहा जा सकता है कि अनौपचारिक सम्बन्ध ऐसे कार्यात्मक सम्बन्ध हैं, जो कि एक लम्बे समय तक साथ कार्य करने वालों की पारस्परिक अन्त क्रियाओं के परिणामस्वरूप विकसित होते हैं ।
औपचारिक तथा अनौपचारिक संगठन में अन्तर (Difference between Formal and Informal Organization):
औपचारिक व अनौपचारिक संगठनों के मध्य अन्तर निम्नांकित बिन्दुओं पर स्पष्ट किया जा सकता है:
(1) औपचारिक संगठन सोच-विचारकर विवेकपूर्ण ढंग से निर्मित किया जाता है, जबकि अनौपचारिक संगठन भावनात्मक आधार पर स्वत: उत्पन्न होता है ।
(2) औपचारिक संगठन में स्थायित्व पाया जाता है, अनौपचारिक संगठन में गत्यात्मकता का गुण होता है ।
(3) औपचारिक संगठन का प्रमुख उद्देश्य समाज सेवा या लाभ कमाना होता है, अनौपचारिक संगठन सदस्यों की सन्तुष्टि के लिये निर्मित होता है ।
(4) औपचारिक संगठनों में अधिकारों एवं कर्त्तव्यों पर बल दिया जाता है, अनौपचारिक संगठनों में व्यक्तियों के मध्य सम्बन्धों का विशेष महत्व होता है
(5) औपचारिक संगठनों में अधिकारों व कर्त्तव्यों का निर्वाह लिखित नियमों के आधार पर होता है, अनौपचारिक संगठनों में नियम व परम्पराएँ अलिखित होती हैं ।
(6) औपचारिक संगठन में अधिकारों का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है, अनौपचारिक संगठन में नीचे से ऊपर की ओर अथवा समतल रूप में होता है ।
(7) औपचारिक संगठन में सम्प्रेषण प्रणाली एकतरफा होती है, अनौपचारिक संगठन में सम्प्रेषण का प्रवाह दोतरफा होता है ।
(8) औपचारिक संगठन में पदोन्नति या पदावनति कार्यनिष्पादन के आधार पर होती है, अनौपचारिक संगठन में पदोन्नति का आधार व्यक्तिगत सम्बन्ध होते हैं ।
(9) औपचारिक संगठन का आकार बहुत बड़ा भी हो सकता है, किन्तु अनौपचारिक संगठन का आकार छोटा होता है ।
(10) औपचारिक संगठनों का आधार कानूनी होता है, जबकि अनौपचारिक संगठन गैर-कानूनी रूप से स्थापित सामाजिक संगठन होते हैं ।
उपर्युक्त अन्तरों के बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि अनौपचारिक संगठनों का अस्तित्व औपचारिक संगठनों की आधारशिला पर ही निर्भर करता है । औपचारिक संगठनों के बन जाने के बाद अनौपचारिक संगठन स्वत: ही अस्तित्व में आ जाते हैं ।
4. संगठन के आधार (Bases of Organization):
संगठन की व्यवस्था कार्य अथवा श्रम-विभाजन के सिद्धान्त पर आधारित होती है । संगठन में निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति के लिये विभिन्न स्तरों पर कार्य-विभाजन करते हुए उनके मध्य समन्वय स्थापित किया जाता है । यह कार्य-विभाजन किस आधार पर किया जाये ? यह एक अत्यन्त विचारणीय प्रश्न रहा है । लूथर गुलिक ने कार्य-विभाजन अथवा संगठन के चार आधार बताए हैं जिन्हें चार ‘पी’ (Four Ps) के नाम से जाना जाता है ।
ये आधार निम्नांकित हैं:
(1) कार्य अथवा उद्देश्य (Purpose),
(2) प्रक्रिया (Process),
(3) व्यक्ति (Person),
(4) स्थान (Place) ।
(1) कार्य अथवा उद्देश्य (Function or Purpose):
कार्य अथवा उद्देश्य से तात्पर्य उन लक्ष्यों व सेवाओं से है जिन्हें संगठन प्राप्त करने का प्रयास करता है । उदाहरणार्थ- शान्ति एवं सुरक्षा यातायात संचार शिक्षा स्वास्थ्य आदि विभिन्न उद्देश्य सरकार द्वारा निर्धारित किए जाते हैं तथा इनकी प्राप्ति हेतु विभिन्न विभागों के बीच कार्य-विभाजन किया जाता है । इन विभागों को भी उप-इकाइयों में विभक्त करके कार्य-विभाजन किया जाता है ।
केन्द्रीय एवं राज्य स्तर पर कार्य अथवा उद्देश्यों के आधार पर ही विभिन्न विभागों की स्थापना की जाती है । भारत में कतिपय अत्यन्त महत्त्वपूर्ण विषय केन्द्र सरकार को मारो गए हैं । जैसे- प्रतिरक्षा वैदेशिक सम्बन्ध डाक-तार, रेलवे आदि । राज्य सरकारों को शिक्षा स्वास्थ्य उद्योग कृषि आदि का उत्तरदायित्व सौंपा गया है । तदुपरान्त केन्द्र व राज्यों के अन्तर्गत विभागों को कार्यों अथवा उद्देश्यों के आधार पर ही पुनर्विभाजित किया गया है ।
संगठन का आधार कार्य अथवा उद्देश्य होने पर लक्ष्यों में समानता बनी रहती है । अत: समन्वय स्थापित रहने के साथ-साथ कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है सहयोगात्मक दृष्टिकोण रहने से कार्य शीघ्र सम्पन्न होता है । जनता को सुविधा रहती है कि किस कार्य के लिये किस विभाग के पास जाना है ? इस प्रकार के संगठन के कुछ दोष भी हैं । जैसे- कार्यों का दोहरापन (Duplication) होना एवं कार्य-विशेषीकरण का अभाव होना आदि ।
(2) प्रक्रिया (Process):
कई बार प्रक्रिया को भी संगठन का आधार बनाया जाता है । इसमें एक ही प्रक्रिया को कार्य में लाने वाले लोगों को एक ही विभाग में संगठित किया जाता है उस निश्चित प्रक्रिया का उपयोग किसी भी उद्देश्य के लिये किया जा सकता है यह उल्लेखनीय तथ्य है कि केवल अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रिया को ही संगठन का आधार बनाया जाता है, कम महत्वपूर्ण प्रक्रिया को नहीं ।
प्रक्रिया के आधार पर संगठित संगठनों में दोहरेपन की सम्भावना कम होती है तथा कार्य-विशेषीकरण के परिणामस्वरूप कार्य-कुशलता में वृद्धि हो जाती है मितव्ययिता, समन्वय एवं एकरूपता बनी रहती है । उन्नति के अवसर भी अधिक होते हैं परन्तु फिर भी इस प्रकार के संगठनों की संख्या कम पाई जाती है क्योंकि इस प्रकार के संगठनों में कार्य करना असुविधाजनक एवं विलम्बपूर्ण होता है । कई बार एक ही प्रक्रिया वाले विभाग अन्य विभागों को सहयोग नहीं करते हैं ।
उदाहरणार्थ- यदि रक्षा विभाग के साथ सूचना विभाग अथवा स्वास्थ्य विभाग आदि सहयोग न करें तो परिणाम प्रतिकूल ही होंगे । प्रक्रिया-आधारित संगठनों का दृष्टिकोण संकुचित होता है । इसके अतिरिक्त केन्द्र एवं राज्य सरकारों का समस्त कार्य प्रक्रिया के आधार पर संगठित नहीं किया जा सकता है ।
(3) व्यक्ति (Person):
कतिपय परिस्थितियों में संगठन का आधार वे व्यक्ति होते हैं जिनकी सेवा की जाती है । इस प्रकार के संगठनों का मुख्य लक्ष्य किसी वर्ग-विशेष के हितों का संरक्षण करना होता है । उदाहरणार्थ- शरणार्थियों की समस्याओं के समाधान हेतु पुनर्वास विभाग या हरिजन कल्याण हेतु अनुसूचित जाति सम्बन्धी विभाग इसमें जिस व्यक्ति-समूह की सेवा का लक्ष्य निर्धारित किया जाता है उसकी सभी प्रकार की आवश्यकताओं की पूर्ति का हर सम्भव प्रयास किया जाता है ।
इस प्रकार के संगठनों में समन्वय की स्थिति बनी रहती है । वर्ग-विशेष की समस्याओं के समाधान हेतु विभिन्न विभागों में अनावश्यक भाग-दौड़ नहीं करनी पड़ती है, व्यक्ति समूह विभागों की उन्नति में गहरी दिलचस्पी लेते हैं । किन्तु इस प्रकार के विभाग सर्वत्र स्थापित नहीं किये जा सकते हैं । कर्मचारियों में योग्यता एवं दक्षता का अभाव बना रहता है तथा विशेषज्ञता की भी कोई आवश्यकता नहीं पड़ती है । कार्य क्षेत्र निर्धारण में भी कठिनाई आती है ।
(4) स्थान (Place):
स्थान के आधार पर निर्मित संगठनों में उन सभी व्यक्तियों को सम्मिलित किया जाता है जो कि एक ही क्षेत्र में कार्यरत होते हैं । यद्यपि उनके उद्देश्यों प्रक्रियाओं एवं सेव्य समुदाय में भिन्नता हो सकती है । अन्य शब्दों में कहा जा सकता है कि इन संगठनों का निर्माण क्षेत्रीय अथवा स्थानीय आधार पर होता है ।
उदाहरणार्थ- सेना की पूर्वी, पश्चिमी व दक्षिणी कमान । भारतीय विदेश विभाग भी इसका सर्वोत्तम उदाहरण है जिसमें बहुत से सम्भाग भौगोलिक आधार पर निर्मित हैं ।
किसी क्षेत्र-विशेष का विकास करने के लिये यह संगठन उपयोगी होता है । इसमें कार्यक्रम व योजनाओं को स्थान की आवश्यकतानुसार परिवर्तित किया जा सकता है । इसमें होने वाला व्यय भी अपेक्षाकृत कम होता है । इस प्रकार के संगठन के विपक्ष में यह तर्क दिया जाता है कि इसमें क्षेत्रीयता व संकीर्णता की भावना को प्रोत्साहन मिलता है । इसमें राजनीतिक दवाब अन्य संगठनों की अपेक्षा कहीं अधिक होता है । विशेषीकरण का भी अभाव रहता है ।
संगठन के आधारों का मूल्यांकन (Evaluation of the Bases of Organization):
संगठन के उपर्युक्त वर्णित आधारों में से सर्वश्रेष्ठ आधार को चुनना एक अत्यन्त दुष्कर कार्य है । सत्यता तो यह है कि इन आधा से के मध्य एक विभाजक रेखा खींच पाना भी सम्भव नहीं है ।
उदाहरणार्थ- एक टाइपिस्ट पत्र लिखने के लिये टाइप करता है । यहाँ पत्र लिखना एक उद्देश्य (Purpose) भी है तथा प्रक्रिया (Process) भी है । इसी प्रकार ‘वन विभाग’ उद्देश्य रूप में वनों का संरक्षण करता है; प्रक्रिया के रूप में वनों का प्रबन्ध करता है तथा व्यक्ति रूप में लकड़ी काटने वालों की सेवा करता है ।
उपर्युक्त विश्लेषण के उपरान्त यह स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी संगठन किसी एक आधार पर निर्मित नहीं हो सकता है । लक्ष्यों के मध्य पदसोपान की स्थिति रहती है जिसके कारण एक लक्ष्य दूसरे लक्ष्य की प्रक्रिया भी बन जाता है ।
सैद्धान्तिक स्थिति जो भी हो किन्तु व्यवहार में किसी भी संगठन को किसी एक आधार पर निर्मित नहीं किया जा सकता है । संगठन के ये चारों आधार एक दूसरे से घनिष्ठ रूप में सम्बन्धित हैं । वस्तुत: प्रत्येक प्रशासन में संगठन के ये चारों ही आधार मिश्रित रूप में पाये जाते हैं ।
5. संगठन सम्बन्धी दृष्टिकोण या उपागम (Approaches Regarding Organization):
किसी भी विषय के अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न दृष्टिकोण हो सकते हैं । कई बार दृष्टिकोण एवं सिद्धान्त का प्रयोग एक ही अर्थ में किया जाता है किन्तु वास्तविकता यह है कि दृष्टिकोण से तात्पर्य किसी विषय को अपने परिप्रेक्ष्य में देखना एवं व्याख्या करना है तथा ‘सिद्धान्त’ उसका आगामी चरण है ।
लोक प्रशासन के क्षेत्र में संगठन का व्यवस्थित अध्ययन बीसवीं सदी में प्रारम्भ हुआ ।
विभिन्न विद्वानों ने लोक प्रशासन एवं संगठन के अध्ययन से सम्बन्धित विभिन्न दृष्टिकोण (उपागम) प्रस्तुत किए जिनका विवरण निम्नलिखित है:
(1) नौकरशाही उपागम,
(2) मानवीय सम्बन्धात्मक उपागम,
(3) सामाजिक-मनोवैज्ञानिक उपागम,
(4) व्यवस्थावादी उपागम,
(5) व्यवहारवादी उपागम,
(6) क्रीड़ा उपागम,
(7) पारिस्थितिकीय उपागम ।
(1) नौकरशाही उपागम (Bureaucracy Approach):
‘नौकरशाही’ शब्द का अंग्रेजी अनुवाद ‘ब्यूरोक्रेसी’ (Bureaucracy) है जो कि फ्रेंच भाषा के ब्यूरो से लिया गया है । सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग फ्रेंच अर्थशास्त्री विन्सेन्ट डि गोर्ने (Vincent de Gournay) ने 18वीं शताब्दी में किया था । 1798 में फ्रेंच अकादमी द्वारा प्रकाशित शब्दकोश में इसका अर्थ बताया गया- ”प्रशासकीय कार्यालयों के अध्यक्षों एवं कर्मचारियों की शक्ति व प्रभाव ।”
कालान्तर में यूरोपीय विद्वानों द्वारा इस शब्द का व्यापक प्रयोग किया जाने लगा वर्तमान में नौकरशाही शब्द ‘मैक्स वेबर’ के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है । वेबर एक प्रमुख समाजशास्त्री हैं । उन्होंने नौकरशाही को प्रशासन की एक तर्कसंगत, विवेकशील एवं आदर्श व्यवस्था बताया । वेबर ने किसी भी संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिये नौकरशाही को अनिवार्य बताया ।
वेबर की नौकरशाही के आदर्श रूप की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) कर्मचारियों के मध्य कार्यों का स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है प्रत्येक कर्मचारी अपने सौंपे गये कार्य को बारबार करके उसमें निपुण हो जाता है ।
(ii) नौकरशाही तन्त्र में स्पष्ट पदसोपान व्यवस्था होती है जिसके अनुसार प्रत्येक अधीनस्थ कर्मचारी उच्चतर अधिकारी के नियन्त्रण में कार्य करता है ।
(iii) कर्मचारी अपने पद से सम्बन्धित अवैयक्तिक कार्यों को ही सम्पादित करते हैं । व्यक्तिगत पसन्दगी-नापसन्दगी को पृथक् ही रखा जाता है ।
(iv) कार्यों का स्पष्ट विभाजन होने के कारण कोई भी किसी के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं करता है ।
(v) कर्मचारियों का चयन उनकी तकनीकी योग्यता के आधार पर किया जाता है ।
(vi) नौकरशाही में तकनीकी नियमों के आधार पर कार्यालय की समूची कार्यवाही का नियमन किया जाता है ।
(vii) कार्यालयों की प्रबन्ध व्यवस्था लिखित दस्तावेजों के आधार पर होती है ।
(viii) प्रबन्ध व्यवस्था के निर्धारित नियम होते हैं जिनसे सभी कर्मचारी अवगत होते हैं ।
(ix) अधिकारीगण अनुकमगय आधार पर नियुक्त किए जाते हैं ।
(x) कर्मचारियों का चयन योग्यता के आधार पर किया जाता है ।
(xi) कर्मचारियों को नकद वेतन दिया जाता है पदसोपान क्रम में पद की स्थिति के अनुरूप उनका वेतनमान निर्धारित किया जाता है । वरिष्ठता या योग्यता के आधार पर उनकी पदोन्नति होती है ।
वेबर के अनुसार इन विशेषताओं के कारण ही नौकरशाही को संगठन का सर्वाधिक सन्तोषजनक रूप स्वीकार किया जाना चाहिए ।
(2) मानवीय सम्बन्धात्मक उपागम (Human Relations Approach):
इस दृष्टिकोण के प्रवर्तक अमेरिकी समाजशास्त्री ‘एल्टन मेयो’ हैं । मेयो ने श्रमिकों के व्यवहार एवं उनकी उत्पादन क्षमता का गहन अध्ययन किया तथा अपने शोध के आधार पर कतिपय ग्रन्थ व लेख प्रकाशित किए ।
सन् 1927 से 1932 के मध्य अमेरिका के शिकागो नगर के निकट स्थित हीथोर्न नगर स्थित वेस्टर्न इलेक्ट्रिक कम्पनी में एल्टन मेयो के नेतृत्व में कुछ प्रयोग किए गए जो कि ‘हॉथोर्न प्रयोग’ कहलाए । इन प्रयोगों के परिणामस्वरूप संगठन की यान्त्रिक विचारधारा की लोकप्रियता कम हो गयी तथा मानव सम्बन्ध महत्वपूर्ण स्थिति प्राप्त करने लगे ।
हॉथोर्न प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों का सार यह था कि संगठन एक सामाजिक व्यवस्था है जिसमें उत्पादकता कार्यरत व्यक्तियों की सेवा की दशाओं पर निर्भर करती है । मानव सम्बन्धों को महत्व देते हुए कहा गया कि संगठन सम्बन्धी समस्याओं के समाधान हेतु मनुष्यों की प्रकृति एवं उनके अनौपचारिक सम्बन्धों का अध्ययन किया जाना चाहिए प्रयोगों के द्वारा यह निष्कर्ष प्राप्त हुए कि कम वेतन पाने वाले कर्मचारी अनौपचारिक रूप से यह निश्चय कर लेते हैं कि वे कार्य तीव्रतापूर्वक नहीं करेंगे ।
शीघ्र कार्य करने वाले श्रमिकों का मजाक बनाया जाता था तथा उनका सामाजिक बहिष्कार कर दिया जाता था । इस प्रकार श्रमिक वर्ग अनौपचारिक रूप से संगठित होकर उतपादन प्रणाली को नियन्त्रित करते थे । इस प्रवृति ने ही अमेरिका में उद्योगों के अन्तर्गत ‘मानव सम्बन्धों के अनुसन्धान’ को प्रोत्साहित किया ।
इन प्रयोगों के आधार पर ही एल्टन मेयो ने किसी भी प्रबन्ध के अन्तर्गत तकनीकी एवं आर्थिक पहलुओं की अपेक्षा मानवीय स्थितियों प्रेरणाओं एवं मानवीय सम्बन्धों को अधिक महत्वपूर्ण बताया मेयो के अध्ययन का निष्कर्ष यही था कि संगठन के मानवीय पक्ष की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए ।
(3) सामाजिक-मनोवैज्ञानिक उपागम (Socio-Psychological Approach):
इस उपागम के प्रमुख समर्थक विद्वान डगलस मैक्ग्रेगर (Douglas Mc-Gregor) हैं यह उपागम संगठन एवं मनुष्यों के बीच सम्बन्धों को समझने का महत्वपूर्ण साधन है । मैस्लो ने 1943 में एक लेख प्रकाशित कराया जिसका शीर्षक था ‘मानव अभिप्रेरणा का एक सिद्धान्त’ ।
इस लेख में उन्होंने संगठन व व्यक्तियों के मध्य सम्बन्धों का मानव आवश्यकताओं की दृष्टि से विश्लेषण किया । ये आवश्यकताएँ विभिन्न क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं तथा इनकी पूर्ति निष्पादन के उच्च स्तर की ओर अभिप्रेरित करती हैं ।
मैस्लो ने व्यक्ति की अभिप्रेरणात्मक आवश्यकताओं को सोपानात्मक रूप से व्यवस्थित किया । संगठन में मानव व्यवहार को व्यक्त करने वाली बहुत-सी आवश्यकताएँ होती हैं । इनमें शारीरिक व सुरक्षा की आवश्यकताएँ सोपानक्रम के निचले स्तर पर होती हैं तथा स्वयंसिद्ध आवश्यकताएँ सर्वोच्च स्तर पर होती हैं ।
सामाजिक या सम्मान सम्बन्धी आवश्यकताएँ मध्य के स्तर पर आती हैं । मैस्लो की मान्यतानुसार निम्न स्तर की आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना व्यक्ति को अभिप्रेरित नहीं किया जा सकता है । प्रत्येक आवश्यकता व्यक्ति के लिये एक लक्ष्य होती है जिसकी पूर्ति के लिये वह प्रेरित होता है ।
डगलस मैक्ग्रेगर प्रसिद्ध व्यवहारवादी व मनोवैज्ञानिक संगठन के कार्य-निष्पादन में मानव क्षमताओं पर दृढ़ विश्वास रखते हैं । वे इस दृष्टिकोण को ‘एक्स-सिद्धान्त’ (X-Theory) कहते हैं । इस सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति कार्य के प्रति स्वाभाविक अरुचि रखता है तथा उससे बचने का प्रयास करता है ।
प्रबन्ध को इस स्वाभाविक मानव प्रकृति का प्रतिकार करना चाहिये अर्थात् भय दिखाकर अथवा पुरस्कार देकर कार्य कराया जाना चाहिये । इस प्रकार यह सिद्धान्त निदेशन व नियन्त्रण पर बल देता है । मैक्ग्रेगर के मतानुसार एकस-सिद्धान्त की मान्यताएँ कार्यनिष्पादन व उत्पादन के मार्ग में बाधाएं हैं ।
अत: उन्होंने एकस-सिद्धान्त के स्थान पर ‘Y-सिद्धान्त’ (Y-Thory) प्रस्तुत किया । यह नवीन सिद्धान्त निदेशन व नियन्त्रण के स्थान पर ‘समन्वय’ की स्थापना करता है । इस प्रकार नवीन दृष्टिकोण ने मानव तत्व को नवीन तकनीक से समझाने का प्रयास किया ।
Y-सिद्धान्त के अनुसार व्यक्ति को अवसर प्रदान कर उससे सृजनात्मक कार्य कराया जा सकता है । इसमें स्वयं नियन्त्रण एवं स्वयं निर्देशन को महत्व दिया गया ।
(4) व्यवस्थावादी उपागम (System Approach):
‘व्यवस्था’ से तात्पर्य एकीकृत पूर्ण स्थिति से है । इसी आधार पर व्यवस्था उपागम वस्तुओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने से सम्बन्धित दृष्टिकोण है । इसमें व्यक्तियों, वस्तुओं या घटनाओं को संकुचित परिप्रेक्ष्य में देखने का अभाव होता है इस दृष्टिकोण के अनुसार किसी भी संगठन की अधिकांश क्रियाएँ परस्पर सम्बन्धित होती हैं ।
इस उपागम का लक्ष्य संगठन को एक समेकित उद्देश्यपूर्ण संस्था के रूप में विकसित करना होता है जो कि परस्पर सम्बद्ध भागों से निर्मित होता है । यह संगठन के विभिन्न भागों का अलग-अलग अध्ययन करने का विरोध करता है ।
यह उपागम अध्ययन करता है कि संगठन के एक भाग का दूसरे भाग पर क्या प्रभाव पड़ता है ? प्रबन्धक का दायित्व है कि वह संगठन के सभी भागों में समन्वय की स्थिति बनाकर रखे । संगठन के अन्दर ‘एकात्मक पूर्ण’ की स्थिति स्थापित करके ही लक्ष्य की प्राप्ति सम्भव है ।
‘व्यवस्थावादी उपागम’ का प्रयोग एक लम्बे समय से प्राकृतिक विज्ञानों में किया जाता रहा है जहाँ तक प्रशासनिक व्यवस्था में इसके प्रयोग का प्रश्न है, इसके साथ विशेष रूप से ‘चेस्टर बर्नार्ड’ का नाम सम्बद्ध है । बर्नार्ड ने अपने सिद्धान्त का विकास इस प्रश्न के आधार पर किया कि ‘किन परिस्थितियों में व्यक्ति का सहकारी व्यवहार सम्भव है ?’
बर्नार्ड की मान्यतानुसार संगठन एक सहकारी व्यवस्था है तथा इसमें लक्ष्यों की प्राप्ति अकेले सम्भव नहीं है वरन् समेकित प्रयास के द्वारा ही ऐसा किया जा सकता है संगठन में व्यक्ति सहयोगी व्यवहार करते हैं तथा सामाजिक मनोवैज्ञानिक एवं पारिस्थितिकीय परिस्थितियों के अन्तर्गत उनका व्यवहार परिवर्तनशील रहता है ।
इस परिवर्तित व्यवहार के साथ सामजस्य बिठाना तथा व्यक्तिगत उद्देश्यों को सन्तुष्ट करना संगठन का दायित्व है । इस प्रकार व्यवस्थावादी उपागम में ‘संगठन’ व ‘व्यक्ति’ दोनों ही महत्वपूर्ण हैं । बर्नार्ड विश्लेषण कर सहयोग का कारण प्रस्तुत करते हैं कि व्यक्ति सहयोग करते हैं, क्योंकि अकेले लक्ष्यों को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होते हैं ।
संगठन को परिभाषित करते हुए बर्नार्ड लिखते हैं कि- ‘संगठन जानबूझकर समन्वित की गई व्यक्तिगत गतिविधियों या शक्ति का नाम है ।’ उन्होंने संगठन के लिए तीन आवश्यक तत्व बताए हैं- संचार, तत्परता एवं साझा उद्देश्य संगठन में सहयोगी प्रयास के लिए एक निर्णायक माना जाने वाला तत्व ‘सत्ता’ भी है जिसके कारण संगठन सदस्यों द्वारा मान्य होता है ।
प्रो. एस. पी. वर्मा के अनुसार- ”व्यवस्था में वस्तुओं तथा तत्वों के समूह का एक ऐसा स्वरूप समाहित है जो विशिष्ट संरचनात्मक सम्बन्धों व निश्चित प्रक्रियाओं के आधार पर अन्तरक्रियाशील व सम्बन्धित रहती हैं ।”
(5) व्यवहारवादी उपागम (Behavioural Approach):
व्यवहारवादी उपागम के अनुसार किसी भी संगठन का केवल औपचारिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है वरन् संगठन के वास्तविक व्यवहार का ज्ञान भी अपेक्षित है । व्यवहारवादी उपागम के प्रमुख समर्थक ‘हर्बर्ट साइमन’ (Herbert Simon) हैं । साइमन के अनुसार प्रशासन कार्य कराने की कला है उन्होंने उन प्रक्रियाओं पर विशेष बल दिया जो कि कार्यवाही से पूर्व की जाती हैं ।
व्यवहारवादी उपागम में कार्यवाही से पूर्व की इसी प्रक्रिया को समझने का प्रयास किया जाता है । इसे ही ‘निर्णय-प्रक्रिया’ कहा जाता है । निर्णय की आवश्यकता उस समय होती है, जबकि किसी कार्य को करने के लिये बहुत सारे विकल्पों में से सर्वोत्तम विकल्प का चयन करना होता है । साइमन के अनुसार किसी भी संगठन में प्रबन्धक की स्थिति सर्वाधिक महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि निर्णय लेने में निर्णायक भूमिका उसी की होती है ।
निर्णय-प्रक्रिया के तीन चरण होते हैं:
(i) बौद्धिक क्रिया- इसमें निर्णय लेने के अवसर ढूँढ़े जाते हैं इस हेतु संगठनात्मक वातावरण का विश्लेषण किया जाता है । उन दशाओं को पहचाना जाता है जिनमें निर्णय लेने की आवश्यकता होती है ।
(ii) संरचना क्रिया- इस चरण में कार्यविशेष से सम्बन्धित विभिन्न विकल्पों के गुणदोषों एवं उनमें निहित समस्याओं की जाँच की जाती है ।
(iii) चयन क्रिया- इस चरण में संगठन के ध्येय को दृष्टिगत रखते हुए सर्वोत्तम विकल्प का चयन किया जाता है ।
इस प्रकार प्राप्त सर्वोत्तम विकल्प में तथ्य एवं मूल्य दोनों सम्मिलित होते हैं । साइमन का तर्क है कि संगठन के सदस्यों का व्यवहार कुछ सीमा तक संगठन के उद्देश्यों से निर्धारित होता है । उद्देश्य के द्वारा ही व्यवहार में एकरूपता आती है ।
साइमन ने निर्णय के भी दो भेद बताए हैं:
(a) संयोजित निर्णय:
ये निर्णय स्वरूप से दोहराए जाने वाले होते हैं तथा इनके लिए निश्चित प्रक्रिया अपनाई जाती है ।
(b) असंयोजित निर्णय:
इस प्रकार के निर्णय बिल्कुल नए होते हैं तथा इनमें पहले से प्रयुक्त पद्धतियाँ काम में नहीं लाई जाती हैं । प्रत्येक प्रश्न पर अलग से विचार किया जाता है । संगठन के अध्ययन में ‘व्यवहारवादी उपागम’ एक महत्वपूर्ण मोड़ है ।
(6) क्रीड़ा उपागम (Game Approach):
इस उपागम के प्रमुख समर्थकों में वॉन न्यूमैन (Von Neumann) तथा मॉर्गेन्स्टीन (Morgenstein) के नाम प्रमुख हैं ।
इनके अनुसार खेल के समान ही संगठन के भी नियम व सिद्धान्त होते हैं इस उपागम की प्रमुख मान्यताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) भविष्य के सम्भावित व्यवहार का प्रतिनिधित्व करने वाला विचार एक ऐसे वृक्ष के समान है जिसमें अनगिनत शाखाएँ होती हैं प्रत्येक व्यक्ति को उचित शाखा -चुनने का अधिकार होता है ।
(ii) व्यक्ति के समक्ष कई विकल्प होने पर वह सर्वोत्तम विकल्प का चयन करता है जिसे बौद्धिक चुनाव कहते हैं ।
(iii) बौद्धिक चुनाव के अनुसार प्रतिद्वन्द्वितापूर्ण स्थिति में दो से अधिक खिलाड़ी मेलजोल बढ़ाने की दिशा में विचार करते हैं ।
(iv) प्रतिद्वन्द्वितापूर्ण स्थिति में एक मिलीजुली युद्धनीति अपनाने पर बल दिया जाता है ताकि विरोधियों द्वारा बाहर न निकाला जा सके ।
क्रीड़ा सिद्धान्त ने लोक प्रशासन व निर्णय-प्रक्रिया को व्यापक रूप से प्रभावित किया है । इस सिद्धान्त का महत्व निर्विवाद रूप से अभी भी बना हुआ है ।
(7) पारिस्थितिकीय उपागम (Ecological Approach):
प्रशासन व संगठन के अध्ययन क्षेत्र में ‘पारिस्थितिकीय उपागम’ द्वितीय विश्व युद्ध के बाद अस्तित्व में आया । इसे ‘तुलनात्मक उपागम’ भी कहा जाता है । इस उपागम के प्रमुख समर्थक विद्वान फ्रेड डब्ल्यू. रिग्स, रॉबर्ट ए. मर्टन जे. एम. गास एवं रॉबर्ट डहल हैं । इस दृष्टिकोण को एक उपागम के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय फ्रेड डक्मू रिग्स (Fred W. Riggs) को प्राप्त है ।
‘पारिस्थितिकीय उपागम’ की मान्यतानुसार ‘परिवेश व वातावरण’ प्रशासन को व्यापक रूप से प्रभावित करते हैं । रिग्स ने विकासशील देशों की प्रशासनिक, व्यवस्थाओं के अध्ययन के सन्दर्भ में प्रशासनिक राजनीतिक आर्थिक, तकनीकी एवं संचार कारकों के मध्य सम्बन्धों का विश्लेषण प्रस्तुत किया ।
थाइलैण्ड व फिलिपीन्स में गहन अध्ययन के उपरान्त स्पष्ट किया कि किस प्रकार पर्यावरण प्रशासनिक व्यवस्थाओं को प्रभावित करता है । रिग्स के विश्लेषण का केन्द्र बिन्दु ‘सामाजिक संरचनाओं’ एवं ‘प्रशासनिक उपतन्त्र’ की पारस्परिक क्रिया का अध्ययन है । यह विश्लेषण समपार्श्वीय (Prismatic) समाजों से सम्बन्धित है । बहुकार्यात्मक (Fused) एवं अल्पकार्यात्मक (Defracted) समाजों की केवल रूपरेखा ही प्रस्तुत की गई है ।
बहुकार्यात्मक (Fused) समाज के संदर्भ में रिग्स ने चीन व थाइलैण्ड का उदाहरण प्रस्तुत किया । इन देशों के समाजों में कार्यों का कोई वर्गीकरण नहीं था समाज कृषि पर निर्भर था आधुनिकीकरण का अभाव था । शाही परिवार का प्रभुत्व था ।
जनता प्रशासन के प्रति पूर्णतया समर्पित थी जबकि प्रशासन या सरकार जनता के प्रति उत्तरदायी नहीं थे । अल्पकार्यात्मक (Defracted) समाज में कार्य-विशेषीकरण था । प्रत्येक संरचना विशेष कार्य करती थी । समाज गतिशील था तथा अर्थव्यवस्था बाजार व्यवस्था पर आधारित थी । इस ‘बाजारीखत समाज’ का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर भी पड़ता था ।
सरकार जन अधिकारों की रक्षक होती है । बहुकायत्मिक तथा अल्पकार्यात्मक के बीच का समाज ‘समपार्श्वीय’ (Prismatic) कहलाता है । रिग्स के अनुसार ‘समपार्श्वीय’ समाज वह है जिसने विशिष्टीकरण का स्तर आधुनिक प्रौद्योगिकी के लेनदेन में आवश्यक भूमिकाओं का विशेषीकरण प्राप्त कर लिया हो किन्तु इन भूमिकाओं को जोड़ने में असफल रहा हो ।
रिग्स ने समपार्श्वीय समाज की तीन विशेषताएँ बतायीं:
(a) विजातीयता,
(b) औपचारिकता एवं
(c) अति-आच्छादन ।
विजातीयता से तात्पर्य है कि समपार्श्वीय समाज में विभिन्न प्रकार की व्यवस्थाएँ, दृष्टिकोण, विचार, क्रियाएँ आदि उपस्थित होती हैं । ऐसे समाजों में विरोधी-प्रवृत्तियाँ साथ-साथ देखने को मिलती हैं । औपचारिकता का अर्थ है कि समपार्श्वीय समाजों में संविधान, नियम, कानून आदि औपचारिक रूप से विद्यमान रहते हैं किन्तु फिर भी निर्धारित मानदण्डों एवं वास्तविकताओं के मध्य अन्तर होता है । अति-आच्छादन इस तथ्य की ओर संकेत करता है कि नये संगठनों के अस्तित्व में आने के बावजूद पुराने संगठन समाज में अपना प्रभुत्व बनाए रखते हैं ।
रिग्स ने समपार्श्वीय समाजों की नौकरशाही के लिये ‘साला’ (Sala) शब्द का प्रयोग किया । ‘साला’ स्पेनिश भाषा का शब्द है जिसका प्रयोग लैटिन अमेरिकी देशों में सरकारी कार्यालयों के लिए किया जाता है । बहुकार्यात्मक समाज में इसे
‘चैम्बर’ (Chamber) तथा ‘अल्पकार्यात्मक’ समाज में ‘ब्यूरो’ (Bureau) कहा जाता है । साला मॉडल विकासशील देशों के समपार्श्वीय समाजों की ‘आदर्श प्रस्तुति’ करता है ।
निष्कर्ष (Conclusion):
परम्परागत या शास्त्रीय दृष्टिकोण जहाँ एक ओर संगठनात्मक संरचनाओं व प्रक्रियाओं पर ही ध्यान केन्द्रित करते रहे हैं वहीं दूसरी ओर आधुनिक उपागम संगठन में मानव एवं मानव-व्यवहार को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हैं ।
6. संगठन की समस्याएँ (Problems of Organization):
संगठन से सम्बन्धित प्रमुख समस्याओं का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
(1) विभाजन के आधार की समस्या (Problem Regarding the Bases of Division):
संगठन की सर्वप्रमुख समस्या यह है कि कार्य का विभाजन किस आधार पर किया जाए एवं विभिन्न क्रियाओं को किस आधार पर कार्य इकाइयों में समूहबद्ध किया जाए कुशल एवं दृढ़ प्रशासनिक संगठन के लिए कार्य विभाजन का सुनिश्चित आधार होना परमावश्यक है ।
(2) कार्य-विभाजन स्तर की समस्या (Problem Regarding the Level of Work- Division):
इसका तात्पर्य है कि कितने स्तरों पर कार्य का उप-विभाजन किया जाए और इन विभिन्न स्तरों को एक-दूसरे के साथ किस प्रकार सम्बद्ध किया जाए ? यह समस्या पदसोपान (Hierarchy) एवं ‘नियन्त्रण के विस्तार’ (Span of Control) से सम्बन्धित है ।
(3) आन्तरिक कार्य-विभाजन की समस्या (Problem Regarding Internal Division of Work):
संगठन से सम्बन्धित एक समस्या यह है कि कार्य-विभाजन के द्वारा संगठन के अन्दर किन इकाइयों का निर्माण हो तथा इन इकाइयों को किस प्रकार परस्पर सम्बन्धित किया जाये ?
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(4) सत्ता-वितरण की समस्या (Problem Regarding Distribution of Power or Authority):
एक समस्या यह उत्पन्न होती है कि प्रशासनिक अधिकारियों एवं अधीनस्थ अधिकारियों के मध्य किस प्रकार अधिकार या सत्तावि भाजन किया जाए तथा उस प्रदत्त अधिकार का दुरुपयोग किस प्रकार रोका जाए अधार, संगठन में सत्ता वितरण व नियन्त्रण किस प्रकार हो ? यह समस्या ‘सत्ता के हस्तान्तरण’ ‘केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण’ एवं ‘आदेश की एकता’ से सम्बन्धित है ।
(5) इकाइयों के मध्य समन्वय की समस्या (Problem Regarding Co-Ordination among Units):
संगठन की विभिन्न इकाइयों के मध्य पारस्परिक सहयोग एवं समन्वय की भावना किस प्रकार जाग्रत की जाये ? यह भी एक प्रमुख समस्या है ।
संगठन की उपर्युक्त समस्याओं का निराकरण होने पर ही संगठन की सफलता की अपेक्षा की जा सकती है ।