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संगठन से सम्बन्धित बहुत-सी तकनीकी समस्याएँ हैं जिनके समाधान हेतु लोक प्रशासन के विद्वानों ने कतिपय सिद्धान्त प्रस्तुत किए । यद्यपि लोक प्रशासन के सिद्धान्तों में भौतिक विज्ञान के नियमों जैसी ‘निश्चितता’ (Certainty) व ‘स्थायित्व’ (Stability) का अभाव है तथापि इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि प्रशासन के क्षेत्र में ये सिद्धान्त गहन निरीक्षण एवं विश्लेषण का परिणाम हैं ।
संगठन के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले प्रमुख विद्वान हैं- हेनरी फेयोल, लूथर गुलिक, उर्विक, विलोबी आदि । निश्चितता के अभाव के कारण ये सिद्धान्त सर्वव्यापी नहीं बन पाये हैं, किन्तु फिर भी इन्हें अनुभवजन्य सिद्धान्तों के रूप में मान्यता प्राप्त है ।
प्रो. एल. डी. ह्वाइट ने इसी प्रकार के विचार व्यक्त करते हुए लिखा है- “ये व्यवहार के कार्य नियमों का सुझाव देते हैं जो विस्तृत अनुभव के कारण मान्य से हो गए हैं ।”
हेनरी फेयोल ने भी इन सिद्धान्तों की उपयोगिता को स्वीकार करते हुए लिखा है- “ऐसे सत्य हैं जो सिद्ध मान लिए गए हैं और जिन पर विश्वास किया जा सकता है ।”
विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने दृष्टिकोण के आधार पर संगठन से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्तों का उल्लेख किया है । इस सन्दर्भ में हेनरी फेयोल ने 14 सिद्धान्तों, उर्विक ने 8 एवं मूने व रैले ने 4 सिद्धान्तों का उल्लेख किया है । लूथर गुलिक ने 10 सिद्धान्त प्रस्तुत किए हैं ।
इन सभी विद्वानों द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों का विश्लेषण करने के उपरान्त अधिकांशत: निम्नलिखित सिद्धान्तों को ‘संगठन के सिद्धान्तों’ के रूप में स्वीकार किया जाता है:
1. पदसोपान अथवा स्कैलर पद्धति का सिद्धान्त,
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2. आदेश की एकता,
3. नियन्त्रण की सीमा,
4. सत्ता का प्रत्यायोजन,
5. केन्द्रीयकरण एवं विकेन्द्रीयकरण,
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6. समन्वय,
7. एकीकृत व्यवस्था बनाम स्वतन्त्र व्यवस्था ।
यहाँ पर पाठ्यकम के अन्तर्गत समाहित किये गये प्रथम पाँच सिद्धान्तों का ही विस्तृत उल्लेख किया जा रहा है:
1. पदसोपान अथवा स्कैलर पद्धति का सिद्धान्त (Principle of Hierarchy or Scalar System):
‘पदसोपान’ को अंग्रेजी में हायरार्की (Hierarchy) कहते हैं जिसका अर्थ है ‘निम्नतर पर उच्चतर का नियन्त्रण’ । इस सिद्धान्त के अनुसार संगठन में कार्य व सत्ता का विभाजन इस प्रकार होता है कि प्रत्येक उच्च अधिकारी अपने तात्कालिक अधीनस्थ कर्मचारियों को निर्देश देता है जिनका पालन करना कर्मचारियों का उत्तरदायित्व है ।
अन्य शब्दों में- पदसोपान से तात्पर्य ऐसे क्रमिक संगठन से है जिसमें निम्न स्तरीय व्यक्ति उच्च स्तरीय व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है । यही कारण है कि इसे ‘पद श्रेणी का सिद्धान्त’ भी कहा जाता है । अर्ललाथम के शब्दों में- “हायरार्की उच्च व निम्न लोगों का उतरता हुआ मापदण्ड है जिसमें प्रधान सबसे ऊपर होता है जहाँ से वह अपने भयंकर नेत्रों से निम्न पदाधिकारियों के हृदयों को देखता है और उनके कार्यों को अपने निर्देशन के अनुसार बदलता रहता है ।”
एल. डी. व्हाइट के अनुसार- ”संगठन की संरचना के शीर्ष से लेकर नीचे तक अनेक स्तरों से होते हुए उत्तरदायित्व के प्रवाह के कारण सार्वभौमिक रूप से श्रेष्ठ एवं अधीनस्थ सम्बन्धों का प्रयोग होने लगता है । जिसे ‘पदक्रम’ कहा जाता है ।”
मूने व रैले ने पदसोपान व्यवस्था को सीढ़ीनुमा प्रक्रिया का नाम दिया है । उन्हीं के शब्दों में- ”स्केलर का अर्थ कुछ स्टेप की श्रेणी है, यह ग्रिड व्यवस्था है । संगठन में इसका अर्थ है कर्त्तव्यों की ग्रेडिंग, भिन्न कार्यों के अनुसार नहीं बल्कि सत्ता तथा अनुरूप उत्तरदायित्व के अनुसार सुविधा के लिए हम इस सिद्धान्त को स्केलर कड़ी कहेंगे ।
संगठन में सत्ता उच्च स्थान से निम्न की ओर क्रमिक रूप से बढ़ती है । सर्वोच्च स्थिति का पदाधिकारी अपने से नीचे वाले पदाधिकारी को आदेश देता है तथा फिर वह पदाधिकारी अपने अधीनस्थ पदाधिकारियों को आदेश देता है । इस प्रकार आदेश का प्रसार ऊपर से नीचे की ओर चलता चला जाता है । प्रत्येक कर्मचारी को यह ज्ञात होता है कि उसे किस पदाधिकारी के नियन्त्रण में कार्य करना है तथा किस पदाधिकारी के आदेशों का पालन करना है ?
विद्वानों ने इस क्रमिक प्रक्रिया की तुलना एक कोण स्तूप (Pyramid) से की है । इस क्रमिक प्रक्रिया में प्रत्येक कार्यवाही विभिन्न स्तरों से होकर सर्वोच्च अधिकारी तक पहुँचाती हैं । किसी भी एक स्तर को छोड़कर कार्यवाही को आगे बढ़ाना उसी प्रकार कठिन होता है जिस प्रकार सीढ़ी के एक डण्डे को छोड़कर नीचे उतरने में असुविधा होती है ।
2. आदेश की एकता (Unity of Command):
यह सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देता है कि कर्मचारी को एक समय में एक ही व्यक्ति के अधीन रखना चाहिये और उसको एक उच्चाधिकारी के आदेशों का पालन करना चाहिये । अन्य शब्दों में एक ऐसी व्यवस्था जिसमें प्रत्येक अधीनस्थ कर्मचारी केवल एक ही व्यक्ति से आदेश प्राप्त करें आदेश की एकता का सिद्धान्त कहलाती है । अधीनस्थ अधिकारी एक ही उच्च अधिकारी से निर्देशन व आदेश प्राप्त करता है जिसके कारण किसी भी प्रकार का भ्रम उत्पन्न होने की सम्भावना नहीं रहती है ।
पिफनर एवं प्रेस्थस के अनुसार- ”आदेश की एकता की अवधारणा का अर्थ है कि किसी संगठन के प्रत्येक सदस्य को एक ओर केवल एक ही वरिष्ठ अधिकारी के प्रति जवाबदेह होना चाहिये ।”
आदेश की एकता के सिद्धान्त की आवश्यकता इसलिए पड़ती है, क्योंकि कई बार निम्न अधिकारी को अपने से उच्च कई अधिकारियों के आदेशों का सामना करना पड़ता है । ऐसी स्थिति में आदेश का पालन समय पर एवं कुशलतापूर्वक कर पाना सम्भव नहीं है ।
आदेश की एकता की विशेषताएँ (Characteristics of Unity of Command):
इस सिद्धान्त की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) यह निश्चित होता है कि कौन अधिकारी किससे निर्देश प्राप्त करेगा ? इसी आधार पर उत्तरदायित्व भी निश्चित रहता है ।
(ii) प्रत्येक सदस्य एक ही व्यक्ति के प्रति उत्तरदायी होता है ।
(iii) आदेश व उत्तरदायित्व का प्रवाह निश्चित दिशा में होता है ।
आदेश की एकता के लाभ (Advantages of Unity Command):
आदेश की एकता के प्रमुख लाभ निम्नलिखित हैं:
(i) सभी को अपने कार्य व उत्तरदायित्व स्पष्ट रहते हैं ।
(ii) आदेशों व उत्तरदायित्वों में दोहरापन (Duplicacy) नहीं आता है ।
(iii) इस व्यवस्था में किसी भी प्रकार का भ्रम न होने के कारण लक्ष्य की प्राप्ति सरल रहती है ।
(iv) अधिकारी को अपने उत्तरदायित्वों से बचने का कोई अवसर नहीं मिलता है ।
(v) प्रशासनिक कार्यकुशलता में वृद्धि होती है तथा किसी भी कार्य में अनावश्यक विलम्ब नहीं होता है ।
(vi) आदेश देने वाला व्यक्ति एक ही होता है । अत: किसी भी प्रकार के विरोध या भ्रम की सम्भावना नहीं होती है । अत: संघर्ष की भी कोई स्थिति उत्पन्न नहीं होती है ।
(vii) यह सिद्धान्त पदसोपान प्रणाली के भी अनुकूल है ।
‘आदेश की एकता’ सिद्धान्त की आलोचना (Criticism of the Principle of Unity of Command):
इस सिद्धान्त की आलोचना निम्नलिखित आधारों पर की जाती है:
(i) यह सिद्धान्त प्रशासन में सभी संगठनों पर समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता है । उदाहरणार्थ- प्राविधिक संगठन एवं सैन्य संगठन । प्राविधिक विभाग के सहायक अभियन्ता को अपने जिले के सामान्य उच्च अधिकारी अर्थात जिला कलेक्टर की आज्ञा का पालन करना चाहिये, किन्तु एक तकनीकी कर्मचारी होने के कारण उसे अपने तकनीकी उच्च अधिकारी (कार्यपालन अभियन्ता) से भी निर्देश लेने होते हैं ।
इस प्रकार तकनीकी अभियन्ता दोहरे नियन्त्रण में कार्य करता है । इसी प्रकार सैन्य विभाग को लिया जा सकता है । युद्धकाल में कमाण्डिग ऑफीसर के साथ न होने पर सैनिक युद्ध सम्बन्धी आदेशों के इन्तजार में नहीं रह सकते हैं अन्य था परिणाम घातक होंगे । इस प्रकार स्पष्ट है कि कुछ क्षेत्रों में प्रशासनिक व तकनीकी दोनों प्रकार के नियन्त्रण की आवश्यकता होती है ।
(ii) एक व्यक्ति को अपने कार्य में पूर्णरूपेण दक्ष होने के लिए विभिन्न अधिकारियों से आदेश व निर्देश प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, किन्तु इस आधार पर यह सिद्धान्त आलोचना का विषय है ।
(iii) सेकलर हडसन (Seckler Hudson) ने इस सिद्धान्त को काल्पनिक बताते हुए अपना मत व्यक्त किया कि ”…….. शासन में स्थित प्रशासक के कई स्वामी रहते हैं और वह उनमें से किसी की भी उपेक्षा नहीं कर सकता है । एक से वह नीति सम्बन्धी आदेश प्राप्त करता है, दूसरे से कार्मिक, तीसरे से बजट, चौथे से वितरण व उपकरण सम्बन्धी ।”
यद्यपि इस सिद्धान्त के प्रयोग से प्रशासन में एवं किसी भी संगठन में एकता व स्थिरता आती है तथापि वर्तमान में विशेषज्ञता एवं जटिलताओं के युग में इस सिद्धान्त का महत्व कम होता जा रहा है ।
3. नियन्त्रण की सीमा (Span of Control):
‘नियन्त्रण की सीमा’ या ‘नियन्त्रण के क्षेत्र’ से तात्पर्य है कि एक उच्च अधिकारी अपने अधीन कितने कर्मचारियों पर नियन्त्रण स्थापित कर सकता है । किसी भी संगठन में नियन्त्रण का क्षेत्र निर्धारित करना परम आवश्यक है । डॉ. एम. पी. शर्मा के मतानुसार- ”नियन्त्रण की सीमा से तात्पर्य है कि एक उच्च पदाधिकारी अपने अधीन कितने कर्मचारियों के कार्य का नियन्त्रण कर सकता है ? नियन्त्रण की सीमा वास्तव में निगरानी की सीमा है ।”
डिमॉक एवं डिमॉक के शब्दों में- ”नियन्त्रण का क्षेत्र किसी उद्यम की मुख्य कार्यपालिका तथा उसके प्रमुख सहयोगी कार्यालयों के मध्य सीधे तथा सामान्य संचार की संख्या एवं क्षेत्र से है ।”
नियन्त्रण-क्षेत्र की सीमा क्या होनी चाहिए ? इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद हैं, किन्तु फिर भी अधिकतर विद्वान इस सम्बन्ध में सहमत हैं कि नियन्त्रण-क्षेत्र जितना छोटा होगा, नियन्त्रण उतना ही अधिक प्रभावशाली होगा । एक पदाधीकारी अपने अधीनस्थ कितने कर्मचारियों पर नियन्त्रण स्थापित कर सकता है ?
इस सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों द्वारा अधीनस्थ कर्मचारियों की बताई गई संख्या इस प्रकार है- सर हैमिल्टन के अनुसार एक पदाधिकारी के अधीन निरीक्षण हेतु तीन से छ: फेयोल के मतानुसार पाँच से छ:, ग्रेक्यूनास के अनुसार भी पाँच से छ: होनी चाहिए । उर्विक ने लिखा है कि- ”उच्च पदाधिकारियों के अधीन पाँच या छ: तथा निम्न पदाधिकारियों के अधीन यह संख्या आठ या बारह होनी चाहिए ।”
नियन्त्रण श्रेत्र की सीमा को निम्नलिखित रेखाचित्र के माध्यम से सरलतापूर्वक समझा जा सकता है:
इस रेखाचित्र में नियन्त्रण की सीमा 5 है ।
वस्तुत: नियन्त्रण-क्षेत्र की कोई आदर्श सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है ।
व्यवहार में नियन्त्रण-सीमा निम्नलिखित तत्वों के आधार पर निर्धारित की जा सकती है:
(i) कार्य (Functions):
लूथर गुलिक के मतानुसार यदि एक व्यक्ति अपने समान ही कार्य करने वालों का नियन्त्रण कर रहा है तो वह बहुसंख्यक लोगों पर एक ही साथ नियन्त्रण कर सकता है । उदाहरणार्थ- एक डॉक्टर अन्य डॉक्टरों का नियन्त्रण बड़ी संख्या में कर सकता है, किन्तु अन्य क्षेत्र के व्यक्तियों की कम संख्या को ही वह नियन्त्रित कर पायेगा । अत: विभिन्न प्रकृति के कार्य करने वाले कर्मचारियों पर नियन्त्रण करने के लिए नियन्त्रण का क्षेत्र समान कार्य करने वाले कर्मचारियों के नियन्त्रण क्षेत्र की अपेक्षा छोटा होगा ।
(ii) समय (Time):
लूथर गुलिक के अनुसार पुराने व स्थायी संगठन का क्षेत्र अपेक्षाकृत नये संगठन के अधिक विस्तृत होता है ।
(iii) स्थान (Space):
यदि किसी अधिकारी के अधीनस्थ कर्मचारियों के कार्यालय भौगोलिक दृष्टि से दूर-दूर फैले हैं, तब नियन्त्रण क्षेत्र छोटा रखना उपयोगी होगा, किन्तु कार्यालय एक ही स्थान में केन्द्रित होने पर नियन्त्रण क्षेत्र का विस्तार करना उचित होगा ।
इसके अतिरिक्त, कुछ अन्य तत्व भी नियन्त्रण की सीमा को प्रभावित करते हैं जैसे कि:
(i) शक्ति (Energy):
निरीक्षक या उच्च पदाधिकारी जितना अधिक योग्य व सक्षम होगा, उतना ही अधिक अधीनस्थ कर्मचारियों पर नियन्त्रण स्थापित कर सकेगा, इसके विपरीत, निरीक्षक के निर्बल व अक्षम होने पर नियन्त्रण क्षेत्र भी सीमित होगा ।
(ii) व्यक्तित्व (Personality):
नियन्त्रण की सीमा अधिकारी के व्यक्तित्व पर भी निर्भर करती है । यदि नियन्त्रक का व्यक्तित्व बहुत ऊँचा है तो उसमें नेतृत्व व नियन्त्रण की क्षमता भी अधिक होगी । वह अपने अधीन नियन्त्रण हेतु कर्मचारियों की एक बड़ी संख्या रख सकता है । व्यक्तिगत क्षमता में कमी होने पर नियन्त्रण-क्षेत्र भी सीमित होगा ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न तत्वों के प्रभावस्वरूप नियन्त्रण-क्षेत्र परिवर्तित होता रहता है । नियन्त्रण-क्षेत्र का निर्धारण बहुत सोच-समझ कर किया जाना चाहिये ।
प्रो. जियाउद्दीन खान के अनुसार नियन्त्रण-क्षेत्र पर इन चार तत्वों का भी प्रभाव पड़ता है:
(i) वैयक्तिक पृष्ठभूमि (Individual Background),
(ii) मानवीय पृष्ठभूमि (Human Background),
(iii) प्राविधिक पृष्ठभूमि (Technological Background) तथा
(iv) संगठनात्मक पृष्ठभूमि (Organizational Background) ।
ग्रेक्यूनास के सिद्धान्त (Graicunas Theory):
ग्रेक्यूनास ने सन् 1933 में एक लेख प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था ‘संगठन में सम्बन्ध’ (Relationship in Organization) । इस लेख में उन्होंने अधीनस्थ व उच्च अधिकारियों के सम्बन्धों की समस्या पर विचार किया । उन्होंने गणितीय आधार पर इन सम्बन्धों की पुष्टि का प्रयास किया ।
ग्रेक्यूनास लिखते हैं कि उच्च अधिकारियों को अपने अधीनस्थों के साथ सम्बन्ध स्थापित करते समय हमेशा यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि उसका न केवल प्रत्येक अधीनस्थों से प्रत्यक्ष रूप में व्यक्तिगत सम्बन्ध है वरन् उसके सम्बन्ध अधीनस्थों के विभिन्न समूहों से और अधीनस्थों के पारस्परिक सम्बन्धों से भी है ।
ग्रेक्यूनास ने ऐसे तीन प्रकार के सम्बन्धों का वर्णन किया है जो कि इस प्रकार हैं:
(i) प्रत्यक्ष इक हरे सम्बन्ध (Direct Single Relationship),
(ii) प्रत्यक्ष समूह सम्बन्ध (Direct Group Relationship) और
(iii) आड़े-खड़े सम्बन्ध (Cross Relationship) ।
(i) प्रत्यक्ष इकहरे सम्बन्ध (Direct Single Relationship):
ये सम्बन्ध किसी भी उच्चाधिकारी के अपने तात्कालिक अधीनस्थों के साथ होते हैं । अधीनस्थों की संख्या जितनी होती है इन सम्बन्धों की संख्या भी उतनी ही होती है ।
उदाहरणार्थ- यदि ‘अ’ उच्चाधिकारी के आधीन तीन पदाधिकारी क्रमश: ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ हैं तो प्रत्यक्ष इक हरे सम्बन्ध इस प्रकार होंगे:
(ii) प्रत्यक्ष समूह सम्बन्ध (Direct Group Relationship):
इसके अन्तर्गत उच्च अधिकारियों एवं उनके अधीनस्थों के मध्य के अधिकतम सम्भावित सम्बन्ध आते हैं ।
उदाहरणार्थ- यदि ‘अ’ उच्चाधिकारी के आधीन तीन अधीनस्थ क्रमश: ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ हैं तो प्रत्यक्ष समूह सम्बन्ध निम्नलिखित आधार पर नौ प्रकार के होंगे:
(iii) आड़े-खड़े अथवा संकर सम्बन्ध (Cross Relationship):
इसके अन्तर्गत इन अधीनस्थों के पारस्परिक अन्तर्सम्बन्ध आते हैं जो कि एक ही उच्चाधिकारी के आधीन कार्य करते है ।
उदाहरणार्थ- यदि उच्चाधिकारी ‘अ’ के अधीन ‘क’, ‘ख’, ‘ग’ तीन अधीनस्थ हैं तो उनके अन्तर-सम्बन्ध निम्नलिखित छ: प्रकार के होंगे:
अधीनस्थों की संख्या में वृद्धि होने पर सम्बन्धों की संख्या में वृद्धि होना स्वाभाविक है ।
ऐसे में सम्बन्धों का आंकलन करने के लिए ग्रेक्यूनास ने अग्रलिखित गणितीय फॉमूला प्रस्तुत किया है:
कुल सम्बन्ध = n (2n/2 + n-1)
n = अधीनस्थों की संख्या
यदि अधीनस्थों की संख्या 6 है तो सूत्र के आधार पर सम्बन्धों की संख्या इस प्रकार ज्ञात की जा सकती है:
ग्रेक्यूनास के सिद्धान्त का मूल्यांकन (An Evaluation of Graicunas Theory):
ग्रेक्यूनास के सिद्धान्त की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जाती है:
(i) ग्रेक्यूनास सूज में नियन्त्रण क्षेत्र के निर्धारक तत्वों का उल्लेख नहीं किया गया है ।
(ii) ग्रेक्यूनास ने जिन सम्बन्धों की व्याख्या की है व्यवहार में सम्बन्धों का क्षेत्र उससे कहीं अधिक व्यापक होता है ।
(iii) इसमें सम्बन्धों को संख्यात्मक पहलू को ही ध्यान में रखा गया है तथा सम्बन्धों की आवृत्ति (Frequency) व सम्बन्धों की तीव्रता (Intensity) जैसे पहलुओं की उपेक्षा की गई है । आवृत्ति व तीव्रता या गहनता का नियन्त्रण क्षमता पर सीधा प्रभाव पड़ता है ।
ग्रेक्यूनास फॉर्मूले में निहित उपर्युक्त दोषों के बावजूद इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि उच्चाधिकारियों व अधीनस्थों के अन्तर्सम्बन्ध निश्चित रूप से नियन्त्रण क्षेत्र की सीमा निर्धारण को जटिल बनाते हैं । इन परिस्थितियों में ग्रेक्यूनास फॉर्मूला कारगर सिद्ध होता है ।
नियन्त्रण के क्षेत्र की समस्या पदसोपान वाले संगठनों ही पाई जाती है । इसमें एक के बाद एक स्तर व सीढ़ियाँ होती हैं । संगठन के स्तरों का निर्धारण इसी आधार पर किया जाता है कि कुल कितने कर्मचारी नियन्त्रित किये जाने हैं ?
प्रत्येक वरिष्ठ अधिकारी कितने अधीनस्थों का निरीक्षण कर सकता है ? इसी आधार पर स्तरों अथवा पदसोपानों का निर्धारण किया जाता है । इससे ज्ञात होता है कि पदसोपान एवं नियन्त्रण के क्षेत्र में निकट का सम्बन्ध है ।
वर्तमान में ‘नियन्त्रण-सीमा’ की धारणा में पर्याप्त परिवर्तन के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे हैं ।
इस परिवर्तन के प्रमुख कारण निम्नलिखित है:
(a) कार्यालयों में स्वचालन का प्रयोग,
(b) सूचना क्षेत्र में क्रान्ति,
(c) प्रशासन में विशेषज्ञों का महत्व,
(d) कम्प्यूटर व इलेक्ट्रॉनिक मशीनों द्वारा प्रशासनिक क्षेत्र में सही तथ्यों व सूचनाओं की प्राप्ति ।
इन परिवर्तित परिस्थितियों में मुख्य कार्यकारी का दृष्टिकोण एक ‘नियन्त्रणकर्त्ता’ की अपेक्षा ‘समन्वयकर्त्ता’ (Co-Ordinator) के रूप में उभरकर सामने आ रहा है ।
4. सत्ता का प्रत्यायोजन (Delegation of Authority):
सत्ता का अभिप्राय (Meaning of Authority):
सत्ता का अभिप्राय उस वैधानिक अधिकार (Legal Right) से है जिसके राहत कोई भी उच्चाधिकारी अपने अधीनस्थों (Subordinates) को आवश्यक निर्देश दे सकता है । जैसा कि हरबर्ट साइमन भी लिखते हैं कि सत्ता निर्णय लेने की शक्ति है । यह दो व्यक्तियों के मध्य उच्चतर व अधीनस्थ का सम्बन्ध है ।
इस प्रकार सत्ता का उद्देश्य वैधानिक शक्ति के माध्यम से अधीनस्थों के व्यवहार को सही दिशा में निर्देशित करना है । यह सत्ता संगठन के आन्तरिक एवं बाह्य कारकों के द्वारा नियन्त्रित होती है । इसी प्रकार सत्ता के पालन में बाध्यता नहीं वरन् इच्छा का भाव निहित होता है ।
प्रत्यायोजन का अभिप्राय (Meaning of Delegation):
‘प्रत्यायोजन’ ‘Delegation’ अथवा ‘प्रत्याधिकरण’ अंग्रेजी के ‘Delegation’ का हिन्दी अनुवाद है । ‘Delegation’ शब्द ‘Delegate’ से बना है जिसका अर्थ प्रतिनिधि से है । प्रतिनिधि वह चयनित व्यक्ति होता है जो कि दूसरों के विचारों एवं दृष्टिकोण से अवगत कराता है । यहाँ पर (Delegation) या प्रत्यायोजन का तात्पर्य सत्ता हस्तान्तरण से है ।
‘प्रत्यायोजन’ का अर्थ है ‘हस्तान्तरण’ । हस्तान्तरण का सम्बन्ध सत्ता, शक्ति व उत्तरदायित्व के प्रत्यायोजन (Delegation) से है । मूने के अनुसार- ”जब उच्च अधिकारी अपनी निर्धारित शक्तियों द्वारा उत्तरदायित्व को निम्न अधिकारी को हस्तान्तरित कर देता है तो उसे प्रत्यायोजन कहते हैं ।”
मिलेट के अनुसार- “प्रत्यायोजन का सार दूसरों को निर्णयात्मक शक्ति प्रदान करने तथा उसके कर्त्तव्यों की सीमा के अन्तर्गत निर्धारित समस्याओं में उसके निर्णयों का प्रयोग करने में है ।”
टेरी के मतानुसार- ”प्रत्यायोजन का अर्थ है एक कार्यकारी अधिकारी अथवा संगठनात्मक इकाई द्वारा अन्यों को शक्ति सौंपना । यह प्रत्यायोजन अनिवार्यत: उच्चाधिकारी द्वारा निम्न अधिकारियों अथवा अधीनस्थों को ही शक्तियाँ सौंपना नहीं है, अपितु इसका अर्थ अधीनस्थों द्वारा उच्च अथवा बराबरी वाले पद को शक्ति सौंपना हो सकता है ।”
5. केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण (Centralization vs. Decentralization):
प्रशासनिक संगठनों की स्वायत्तता एवं सम्प्रभुता के सन्दर्भ में दो रूप उभरकर सामने आते हैं- केन्द्रित एवं विकेन्द्रित । वर्तमान लोक कल्याणकारी राज्य में यह माँग निरन्तर बलवती हो रही है कि प्रशासन जनता की इच्छाओं के अनुकूल होना चाहिये ।
इन परिस्थितियों में ‘केन्द्रीकरण बनाम विकेन्द्रीकरण’ का मुद्दा भी अहम् बन गया है । इस विवाद की सही अभिव्यक्ति ‘चार्ल्सवर्थ’ के इन शब्दों से होती है, ”संगठन की अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं में से एक यह है कि एक ओर तो प्रशासक की पूर्ण नियन्त्रण, एकरूपता एवं निश्चितता स्थापित करने की स्वाभाविक इच्छा और दूसरी ओर जनता की यह माँग कि सरकारी प्रशासन स्थानीय जन भावना के अनुकूल हो- इनके मध्य सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए ?”
केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण के निर्धारक तत्व (Determinants of Centralization and Decentralization):
जे. डब्ल्यू. फेजलर के अनुसार केन्द्रीकरण और विकेन्द्रीकरण को निर्धारित करने वाले प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:
(i) उत्तरदायित्व का तत्व (Factor Responsibility):
उत्तरदायित्व का तत्व केन्द्रीकरण के पक्ष में है । अध्यक्ष प्रत्येक कार्य के लिए अन्तिम रूप से उत्तरदायी होता है । ऐसे में वह निर्णय शक्ति भी अपने हाथों में रखना चाहता है ।
(ii) प्रशासनिक तत्व (Factor of Administration):
प्रशासनिक तत्वों में प्रथम है ‘संगठन की आयु’ । पुराने संगठनों में विकेन्द्रीकरण सरल होता है क्योंकि आन्तरिक प्रक्रियाओं व परम्पराओं में अच्छी प्रकार से स्थायित्व आ चुका होता है ।
दूसरा तत्व ‘संगठन की नीतियाँ’ हैं । नीतियों में स्थायित्व होने पर विकेन्द्रीकरण का मार्ग सरल होगा । तीसरा प्रशासनिक तत्व ‘कार्मिक की कार्यक्षमता’ है । कार्मिकों के कुशल होने पर विकेन्द्रीकरण को अन्यथा केन्द्रीकरण को प्रोत्साहन मिलेगा ।
(iii) कार्यात्मक तत्व (Functional Factor):
यदि कार्य बहुमुखी अथवा प्राविधिक प्रकृति के होते हैं तब विकेन्द्रीकरण उपयुक्त होगा क्योंकि अकेले विभागाहमक्ष के पास इतना समय व कौशल होना सम्भव नहीं है कि वह स्वयं सारा प्रबन्ध कर सके । किन्तु ऐसे विभागीय संगठन जिनको ऐसे विषय सौंपे गए हों जिनके सम्बन्ध में राष्ट्रीय स्तर पर समरूपता लाना आवश्यक हो तब केन्द्रीकरण अनिवार्य हो जाता है ।
(iv) बाह्य तत्व (External Factor):
जन-समर्थन पर आधारित विकास योजनाओं के क्रियान्वयन हेतु विकेन्द्रीकरण आवश्यक हो जाता है । इसी प्रकार राजनीतिक दलों का क्षेत्र-विशेष पर प्रभाव बढ़ने की स्थिति में भी विकेन्द्रीकरण की माँग बढ़ सकती है ।
6. समन्वय (Co-Ordination):
किसी भी संगठन में मानवीय सम्बन्धों का व्यवस्थित रूप ‘समन्वय’ (Co-Ordination) कहलाता है । समन्वय के माध्यम से ही संगठन की विभिन्न इकाइयों के मध्य समरूपता एवं कर्मचारियों के मध्य सहयोग की स्थापना की जाती है ।
विभिन्न विद्वानों के द्वारा समन्वय की परिभाषा निम्नलिखित रूपों में की गई है:
मूने के अनुसार- ”किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिये उपयुक्त होने वाले प्रयत्नों में कार्यों की एकता और उनको क्रमिक रूप से संगठित करने को समन्वय कहते हैं ।”
नीग्रो के मतानुसार- ”समन्वय का अर्थ है कि संगठन के विभिन्न अंग एक साथ मिलकर प्रभावकारी रूप में कार्य करते हैं और कार्य बिना किसी संघर्ष, अतिच्छादन या पुनरावृत्ति के चलता है ।”
चार्ल्सवर्थ के कथनानुसार- “समन्वय का अर्थ है विभिन्न भागों का एक व्यवस्थित पूर्ण में एकीकरण जिससे कि संगठन के उद्देश्य की प्राप्ति की जा सके ।”
सेकलर हडसन के शब्दों में- “समन्वय कार्य के विभिन्न हिस्सों को परस्पर सम्बद्ध करने का सर्वत्र महत्वपूर्ण कर्त्तव्य है ।”
समन्वयव सहयोग में सम्बन्ध (Relation between Co-Ordination and Co-Operation):
सामान्यतया ‘समन्वय’ व ‘सहयोग’ को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है जो कि अनुचित है सहयोग से तात्पर्य किसी भी कार्य में स्वैच्छिक (Voluntary) सहायता प्रदान करना है, जबकि समन्वय की प्रक्रिया एक नियोजित किया है । सहयोग एक अनौपचारिक तथा समन्वय औपचारिक प्रक्रिया है समन्वय संगठन का आस्पार होता है, जबकि सहयोग का कोई संरचनात्मक आहगर नहीं है । यह रुचि पर निर्भर करता है ।
समन्वय की आवश्यकता (Necessity of Co-Ordination):
किसी भी संगठन के लिये समन्वय निम्नलिखित कारणों से आवश्यक है:
(i) कर्मचारियों के मध्य उत्पन्न झगड़ों एवं विवादों के समाधान हेतु ।
(ii) संगठन के विभिन्न भागों एवं अधिकारियों के मध्य पारस्परिक सहयोग की स्थापना हेतु ।
(iii) संगठन की कार्यविधियों में दोहराव (Duplication) को रोकने हेतु ।
(iv) संगठन के कार्यों में क्रमबद्धता लाने हेतु ।
समन्वय के प्रकार (Types of Co-Ordination):
समन्वय निम्नलिखित प्रकार का होता है:
(a) आन्तरिक अथवा कार्यात्मक समन्वय (Internal or Functional Co-Ordination),
(b) बाह्य अथवा संरचनात्मक समन्वय (External or Structural Co-Ordination),
(c) लम्बरूप समन्वय (Vertical Co-Ordination),
(d) समतल समन्वय (Horizontal Co-Ordination) ।
समन्वय की विधियाँ (Methods of Co-Ordination):
किसी भी संगठन के द्वारा समन्वय हेतु सामान्यतया दो प्रकार की विधियाँ या साधन अपनाये जाते हैं:
(1) औपचारिक विधियाँ एवं
(2) अनौपचारिक विधियाँ ।
(1) औपचारिक विधियाँ (Formal Methods):
ये औपचारिक विधियाँ निम्नलिखित प्रकार की हो सकती हैं:
(i) नियोजन (Planning):
किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति हेतु व्यवस्थित रूप से योजना बनाना अति आवश्यक होता है । कार्यों की स्पष्ट विवेचना करते हुए इकाइयों के मध्य स्पष्ट कार्य-विभाजन किया जाता है ।
(ii) संगठनात्मक संरचना (Organizational Structure):
संगठन जितना सरल व एकीकृत होगा समन्वय प्रक्रिया उतनी सरल व
सुदृढ़-होगी । सरल संरचना कर्त्तव्यों व उत्तरदायित्वों का स्पष्ट निर्धारण करती है तथा दोहराव (Duplication) पर नियन्त्रण स्थापित करती है ।
(iii) संचार साधन (Means of Communication):
हैमेन (Haimann) के मतानुसार- ”अच्छे संचार के साधन संगठन की विभिन्न क्रियाओं के समन्वय में महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करते हैं । संगठन की काफी समस्याओं का समाधान संचार के माध्यम से ही हो जाता है ।”
(iv) प्रभावशाली नेतृत्व (Effective Leadership):
प्रभावशाली नेतृत्व नियोजन व कार्यान्वयन में सहायक होता है । लूथर गुलिक के अनुसार- ”समन्वय विचारों द्वारा प्राप्त किया जाता है जो संगठन में कुशल नेतृत्व का दृष्टिकोण, योग्यता एवं व्यक्तित्व का प्रभाव उत्पन्न करता है । यह प्रभाव कुशल समन्वय की ओर ले जाता है ।”
(2) अनौपचारिक विधियाँ (Informal Methods):
समन्वय की कुछ अनौपचारिक विधियाँ भी हैं जो इस प्रकार हैं:
(a) व्यक्तिगत सम्पर्क (Personal Contact)- अनौपचारिक विधि में सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्तिगत सम्पर्क है अर्थात् औपचारिकता से हटकर पारस्परिक मेलजोल ।
(b) भावुकतापूर्ण अपीलें (Emotional Appeals)- कई बार संगठन के अध्यक्ष को समायोजन करने के उद्देश्य से भावुकतापूर्ण अपीलों का भी सहारा लेना पड़ता है ।
समन्वय में बाधाएँ (Obstacles in Co-Ordination):
समन्वय के मार्ग में प्राय: निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं:
(i) संगठनों का कार्यभार अत्यधिक होने पर समन्वय के मार्ग में बाधाएं आती हैं ।
(ii) कर्मचारियों की अधिक संख्या भी समन्वय के मार्ग में एक बाधा है ।
(iii) वर्तमान संगठनों में विशेषीकरण को पर्याप्त महत्व दिया जाता है । कार्यों को विशेषज्ञों को सौंपा जाता है । इन विशेषज्ञों के मध्य समन्वय एक जटिल कार्य है ।
(iv) नियन्त्रण-क्षेत्र का सीमित होना भी समन्वय में बाधा उत्पन्न करता है ।
7. एकीकृत व्यवस्था बनाम स्वतन्त्र व्यवस्था (Integrated System vs. Independent System):
एकीकृत व्यवस्था का अर्थ (Meaning of Integrated System):
एकीकृत व्यवस्था को ‘समग्र’ अथवा ‘विभागीय’ व्यवस्था भी कहा जाता है । इस व्यवस्था के अन्तर्गत समान सेवाएँ करने वाले अभिकरणों को विभागों में विभाजित कर दिया जाता है तथा इन सभी विभागों को एकीकृत करके मुख्य कार्यपालिका के अधीन रखा जाता है ।
जिस प्रकार भारत में सभी विभाग प्रधानमन्त्री की देखरेख में रखे जाते हैं । एकीकृत व्यवस्था की तुलना सावयव शरीर से की जाती है जिस प्रकार शरीर के सभी अंग परस्पर सम्बद्ध होते हैं, उसी प्रकार प्रशासन में सभी इकाइयाँ परस्पर सम्बद्ध रहती हैं ।
एकीकृत व्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Integrated System):
एकीकृत व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) पारस्परिक सहयोग (Mutual Co-Ordination) इस व्यवस्था के अन्तर्गत प्रशासन के सभी विभाग परस्पर सहयोगी व अन्योन्याश्रित अंगों की तरह कार्य करते हैं प्रशासन के सभी विभाग एक-दूसरे से सम्बद्ध रहते हैं तथा एक-दूसरे की सहायता का पूर्ण प्रयास करते हैं ।
(ii) समान उत्तरदायित्व (Common Responsibility):
प्रशासन के सभी विभाग विभिन्न मन्त्रियों की देखरेख में कार्य करते हैं किन्तु ये सभी विभाग सामूहिक रूप से मुख्य कार्यपालिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं ।
(iii) सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति (Fulfillment of Common Objective):
एकीकृत व्यवस्था में सभी अंग सामान्य उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में साथ-साथ कार्य करते हैं । सत्ता-सूत्र मुख्य कार्यपालक से होता हुआ विभिन्न स्तरों व अंगो तक पहुँचता है ।
(iv) सावयवी एकता (Organic Unity):
जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग परस्पर जुड़कर सम्पूर्ण शरीर के लिये कार्य करते हैं, उसी प्रकार एकीकृत व्यवस्था में सभी विभाग परस्पर सम्बद्ध होकर संगठन के उद्देश्यों की प्राप्ति की दिशा में प्रयत्नशील रहते हैं ।
एकीकृत व्यवस्था के गुण (Merits of Integrated):
एकीकृत व्यवस्था निम्नलिखित दृष्टियों से लाभप्रद है:
(i) विभिन्न इकाइयों में समन्वय (Co-Ordination among Different Units):
संगठन की विभिन्न इकाइयों के मध्य यद्यपि कार्यों का स्पष्ट विभाजन किया जाता है तथापि इन इकाइयों का लक्ष्य पारस्परिक सहयोग व समन्वय द्वारा सामान्य उद्देश्यों की प्राप्ति करना होता है । इस प्रकार विभिन्न इकाइयों के मध्य मौलिक एकता बनी रहती है ।
(ii) कार्यों का स्पष्ट विभाजन (Clear Distribution of Work):
एकीकृत व्यवस्था में विभिन्न इकाइयों को समन्वय-सूत्र में बाँध्ने के साथ-साथ उनके कार का भी स्पष्टीकरण कर दिया जाता है । अत: अधिकार क्षेत्र से सम्बन्धित कोई विवाद उत्पल नहीं होता है ।
(iii) बजट की सरलता (Simplification of Budget):
आधुनिक प्रजातन्त्र प्रणाली में मुख्य कार्यपालिका को प्रतिवर्ष विभिन्न विभागों के कार्यों को सुचारु रूप से चलाने के लिये व्यवस्थापिका के समक्ष धन की माँग प्रस्तुत करनी पड़ती है । इसके लिये विभागों के आय व्यय सम्बन्धी एक विवरण तैयार किया जाता है जिसे ‘बजट’ (Budget) कहा जाता है । एकीकृत व्यवस्था में यह कार्य सरलतापूर्वक सम्पन्न हो जाता है ।
(iv) नियन्त्रण में सुविधा (Convenience in Control):
एकीकृत व्यवस्था में प्रत्येक विभाग का एक प्रमुख होता है । वह सत्ता का केन्द्र होता है तथा अपनी प्रत्यायोजित सत्ता के माध्यम से अधीनस्थों पर नियन्त्रण स्थापित करता है । सभी विभागों के प्रधान मुख्य कार्यपालक के प्रति उत्तरदायी होते हैं ।
डब्ल्यू. एफ. विलोबी ने एकीकृत व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए लिखा है कि- ”इस पद्धति का सबसे बड़ा गुण यह है कि उसमें शासन की समस्या का सरल हल निहित है ।”
एकीकृत व्यवस्था के दोष (Demerits of Integrated System):
कोई भी व्यवस्था आदर्श व्यवस्था नहीं हो सकती है । प्रत्येक व्यवस्था में गुणों के साथ-साथ कतिपय दोष भी पाये जाते हैं ।
एकीकृत व्यवस्था के प्रमुख दोष निम्नलिखित हैं:
(i) कार्यपालिका की निरंकुशता (Dictatorship of Executive):
इस व्यवस्था में सम्पूर्ण सत्ता मुख्य कार्यपालिका में केन्द्रित रहती है । सभी विभागों के प्रधान मुख्य कार्यपालक की इच्छा के विरुद्ध कोई कार्य नहीं कर सकते हैं । इस प्रकार मुख्य कार्यपालिका के निरंकुश होने का भय बना रहता है ।
(ii) नीरस एकरूपता (Dull Uniformity):
एकीकृत व्यवस्था में व्यक्तिगत स्वतन्त्रता एवं लोकतान्त्रिक मूल्यों को खतरा उत्पन्न हो जाता है । साथ ही एक प्रकार की नीरस एकरूपता व्याप्त हो जाती है ।
(iii) कार्य-सम्पादन में विलम्ब (Delay in Performance):
इस व्यवस्था में प्रत्येक कार्य को करने से पूर्व विभागीय अधिकारी की स्वीकृति लेनी होती है इसके कारण प्रत्येक कार्य में विलम्ब होता है ।
(iv) मतभेद की सम्भावना (Possibility of Differences):
एकीकृत व्यवस्था में कर्मचारी एक समय तक एक ही स्थान पर कार्य करते हैं जिससे उनके मध्य हम मतभेद की सम्भावना बढ़ जाती है ।
स्वतन्त्र व्यवस्था का अर्थ (Meaning of Independent System):
प्रशासन की वह व्यवस्था जिसमें सत्ता अनेक स्वतन्त्र कार्यालयों तथा आयोगों में निहित रहती है ‘स्वतन्त्र’ अथवा ‘असमग्र’ (Disintegrated) कहलाती है ।
स्वतन्त्र व्यवस्था की विशेषताएँ (Characteristics of Independent System):
‘स्वतन्त्र’ अथवा ‘असमग्र’ अथवा ‘असम्बद्ध’ व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं:
(i) इस व्यवस्था में स भी कार्यालय एक-दूसरे से स्वतन्त्र होते हैं ।
(ii) प्रत्येक सेवा को एक इकाई माना जाता है जिसका अन्य सेवाओं से कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता है ।
(iii) सत्ता सूत्र का संचरण मुख्य कार्यपालिका अथवा व्यवस्थापिका तक सीधे होता है ।
(iv) मुख्य कार्यपालिका अथवा व्यवस्थापिका को किसी भी सेवा को प्रारम्भ करने उसका निर्देशन करने एवं उस पर नियन्त्रण का पूर्ण अधिकार होता है ।
स्वतन्त्र व्यवस्था के गुण (Merits of Independent System):
असम्बद्ध व्यवस्था के निम्नलिखित गुण हैं:
(a) इस व्यवस्था में प्रशासन की इकाइयाँ अथवा आयोग स्वतन्त्र रूप से कार्य करते हैं । अतएव मुख्य कार्यपालिका की तानाशाही पर नियन्त्रण बना रहता है ।
(b) विभिन्न आयोगों व सेवाओं के स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने के कारण प्रशासन में कुशलता बनी रहती है ।
(c) असम्बद्ध व्यवस्था में सेवाओं के स्वतन्त्रतापूर्वक एवं कुशलतापूर्वक कार्य करने के परिणामस्वरूप जनता का अधिक-से-अधिक कल्याण सम्भव होता है ।
(d) यह व्यवस्था दलबन्दी के प्रभाव से भी मुक्त रहती है ।
स्वतन्त्र व्यवस्था के दोष (Demerits of Independent System):
इस व्यवस्था के कुछ दुष्परिणाम भी देखने को मिलते हैं जैसे कि:
(a) इस व्यवस्था के अन्तर्गत विभिन्न विभागों में एकता का अभाव रहता है जिससे कि प्रशासन की कुशलता पर दुष्प्रभाव पड़ता है ।
ADVERTISEMENTS:
(b) सार्वजनिक नियन्त्रण का अभाव होने के कारण संघर्ष की सम्भावना बनी रहती है ।
(c) इकाइयों के स्वतन्त्र होने के कारण उत्तरदायित्व की भावना का भी अभाव रहता है ।
(d) प्रशासन के कार्यों में उद्देश्य की समानता नहीं पाई जाती है ।
(e) असम्बद्ध अथवा स्वतन्त्र व्यवस्था में प्रशासन के कार्यों में स्थायित्व का अभाव रहता है ।
एकीकृत व स्वतन्त्र दोनों व्यवस्थाओं के अपने-अपने गुण-दोष हैं, किन्तु इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता है कि यदि स्वतन्त्र व्यवस्था विकेन्द्रीकरण की पक्षधर होने के कारण जनता के हितों की कहीं अधिक रक्षक है, एकीकृत व्यवस्था प्रशासनिक एकीकरण को सम्भव बनाती है ।