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लोक प्रशासन एवं राजनीति विज्ञान (Public Administration and Political Science):
लोक प्रशासन एवं राजनीतिशास्त्र के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में दो विचारधाराएँ अथवा सिद्धान्त प्रचलित रहे हैं:
(1) परम्परागत विचारधारा अथवा पृथकता का सिद्धान्त एवं
(2) आधुनिक विचारधारा अथवा समन्वय का सिद्धान्त ।
(1) परम्परागत विचारधारा अथवा पृथकता का सिद्धान्त (Traditional View or the Theory of Isolation):
इस विचारधारा के समर्थकों की मान्यता है कि लोक प्रशासन एवं राजनीति विज्ञान के क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं । ‘राजनीति विज्ञान का सम्बन्ध नीति निर्धारण से है, जबकि प्रशासन का कार्य उन नीतियों के सफल क्रियान्वयन से सम्बन्धित है ।’
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इस विचारधारा के समर्थक विद्वानों के विचारों का उल्लेख निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है:
वुडरो विल्सन के अनुसार- ”प्रशासन का क्षेत्र कर्त्तव्य अथवा कार्य क्षेत्र है । इसमें राजनीतिशास्त्र की शीघ्रता एवं वाद विवाद का कोई स्थान नहीं होता है ।”
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वुडरो विल्सन के ही शब्दों में- ”प्रशासन राजनीति की परिधि के बाहर है प्रशासकीय समस्याएँ राजनीतिक समस्याएं नहीं हैं यद्यपि राजनीति प्रशासन के लिये कार्य निर्धारित करती है तथापि उसे प्रशासकीय पदों के साथ तिकड़म करने की स्वीकृति नहीं मिलनी चाहिये ।”
गुडनो (Goodno) ने भी राजनीति व प्रशासन की पृथक्ता को स्वीकार करते हुए लिखा है कि- ”प्रशासन का एक बड़ा भाग ऐसा है जिसका राजनीति से कोई सम्बन्ध नहीं है । इसी दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि पूर्ण रूप से नहीं तो कम-से-कम प्रशासन के बड़े भाग को तो राजनीतिक संस्थाओं के नियन्त्रण से मुक्ति मिलनी चाहिये । प्रशासन के क्षेत्र में अर्द्ध-वैज्ञानिक, अर्द्ध-न्यायिक एवं अर्द्ध-व्यापारिक क्रियाएँ आती हैं जिनसे राज्य की वास्तविक इच्छाओं की अभिव्यक्ति होती है इसलिये राजनीतिशास्त्र और लोक प्रशासन का क्षेत्र असम्बद्ध है ।”
ब्लंटशली (Bluntschli) के कथनानुसार- ”राजनीति राज्य की ऐसी प्रक्रिया है जिसका सम्बन्ध बड़े अथवा सार्वदेशिक कार्यों से होता है, परन्तु इसके विपरीत प्रशासन का सम्बन्ध व्यक्ति तथा छोटे-छोटे कार्यों से होता है । इस प्रकार राजनीति तो राजनीतिज्ञों का ही विशिष्ट कार्यक्षेत्र होता है और प्रशासन यान्त्रिक दृष्टि से कुशल अधिकारियों के क्षेत्र से सम्बन्धित है ।”
‘पृथकता सिद्धान्त’ के अनुसार राजनीति एवं प्रशासन के क्षेत्र पृथक्-पृथक् हैं । मन्त्रियों का दायित्व नीतियों का निर्धारण करना है, जबकि प्रशासकों का कार्य नीतियों का क्रियान्वयन करना है । राजनीतिज्ञ ऐसे साधनों की खोज में प्रयत्नशील रहता है जिससे वह अधिकाधिक शक्ति प्राप्त कर सके अपनी शक्ति को स्थायी बना सके तथा विरोधियों को शक्तिहीन कर सके इसके विपरीत एक प्रशासक अपने पदानुसार शक्ति प्राप्त करके उसका उपयोग जनता के हितों की रक्षार्थ करता है । इस प्रकार यह सिद्धान्त राजनीति विज्ञान एवं लोक प्रशासन के क्षेत्रों को असम्बज्यित मानता है ।
(2) आधुनिक विचारधारा अथवा समन्वय का सिद्धान्त (Modern View or the Theory of Co-Ordination):
वर्तमान में परम्परागत दृष्टिकोण को अव्यवहारिक माना जाता है । आधुनिक विचारधारा राजनीति एवं प्रशासन के मध्य समन्वय के सिद्धान्त को स्वीकार करती है जिसके अनुसार राजनीति व प्रशासन एक-दूसरे से पृथक् नहीं हैं वरन् एक-दूसरे के पूरक हैं तथा छाया की भांति एक-दूसरे में समाविष्ट हैं । दोनों के मध्य भेद होते हुए भी इन्हें पृथक् नहीं किया जा सकता है ।
राजनीतिज्ञों का कार्य प्रशासकों के बिना नहीं चल सकता है क्योंकि उनके द्वारा निर्धारित नीतियों का क्रियान्वयन प्रशासन के माध्यम से ही सम्भव है । इसी प्रकार राजनीतिज्ञों द्वारा यदि नीतियों का निर्धारण न हो तो प्रशासन के भ्रष्ट होने की पूर्ण सम्भावना रहती है । इसी आधार पर लूथर गुलिक ने विचार व्यक्त किया है कि- ”राजनीति को प्रशासन से और प्रशासन को राजनीति से पृथक् नहीं किया जा सकता है ।”
इस प्रकार दोनों क्षेत्रों में समन्वय का सिद्धान्त लागू होता है । लेसिले लिप्सन (Lessile Lipson) के कथनानुसार ”सरकार के कार्यों को विभाजित करने वाली कोई सरल रेखा नहीं खींची जा सकती है सरकार एक ऐसी प्रक्रिया है जो अविरल गति से चलती रहती है । यह बात सत्य है कि प्रत्येक किया में कई चरण होते हैं । व्यवस्थापन प्रथम चरण है तथा प्रशासन दूसरा चरण किन्तु इतना होने पर भी ये चरण एक-दूसरे से इतना मिले हुए हैं कि कुछ स्थानों पर उनमें बिल्कुल भी भेद नहीं किया जाता है ।”
समन्वय सिद्धान्त के समर्थकों ने अपने मत के समर्थन में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किये हैं:
(1) मन्त्रियों को सचिवों द्वारा परामर्श (Advice of Secretaries to Ministers):
लोकतन्त्रीय राज्यों में मन्त्रिगण अपने विभाग की नीतियों का निर्धारण करते हैं । नीति-निर्धारण के कार्यों में मन्त्रियों को योग्य कर्मचारियों से परामर्श लेने की आवश्यकता पड़ती है । ऐसा न करने पर नीतियों के क्रियान्वयन के मार्ग में समस्याएँ आ सकती हैं ।
(2) नियोजन से पूर्व तथ्यों का ज्ञान (Knowledge of Facts before Planning):
मन्त्रिगण किसी भी योजना का निर्माण उस समय तक सफलतापूर्वक नहीं कर सकते जब तक कि उन्हें प्रशासन के सभी लोक प्रशासन का अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध 25 विभागों से आवश्यक तथ्यों की जानकारी न हो गई हो । डॉनाल्ड किंग्सले का यह कथन सत्य ही प्रतीत होता है कि- ”प्रशासन राजनीति की एक शाखा है ।”
राजनीतिशास्त्र व लोक प्रशासन पृथक् प्रतीत होने पर भी उनके मध्य कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती है ।
(3) राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों में सम्बन्ध (Relationship between Politicians and Administrators):
राजनीतिज्ञों एवं प्रशासकों के मध्य सम्बन्ध स्पष्ट करते हुए पिफनर (Piffiner) लिखते हैं कि- ”राजनीति और प्रशासन के बीच विभाजन का आशय केवल कार्य करने से सम्बन्धित नियमों को बनाने से है जो कि कार्य करने में स्वयं इस बात का निश्चय कर देंगे कि कोई भी विशिष्ट मामले विधानमण्डलीय क्षेत्र से सम्बन्धित हैं अथवा प्रशासकीय क्षेत्र से ।”
(4) विभागाध्यक्षों द्वारा मन्त्रियों को चेतावनी (Alarm to Ministers by Head of the Departments):
मन्त्रीगण अल्पकाल के लिये निर्वाचित होते हैं जबकि विभागाध्यक्षों का एक लम्बा जीवन विभागीय समस्याओं को सुलझाने में व्यतीत होता है । परिणामस्वरूप उन्हें मन्त्रियों की अपेक्षा विभागों का व्यवहारिक ज्ञान कहीं अधिक होता है । यदि मन्त्री महोदय द्वारा निर्मित कोई नीति सार्वजनिक हित में नहीं होती है तो विभागाध्यक्ष मन्त्री को चेतावनी दे सकते हैं ।
(5) नीति-निर्माण में तथ्यों व आंकड़ों का महत्व (Significance of Data and Facts in Policy Making):
मन्त्रियों के लिये किसी नीति के निर्माण से पूर्व उससे सम्बन्धित आँकड़ों को एकत्रित करना आवश्यक है । तथ्यों व आकड़ों के एकत्रीकरण का कार्य विभागाध्यक्षों द्वारा किया जाता है । कर्मचारियों एवं विभागाध्यक्षों का जीवन सम्बन्धित तथ्यों एवं जानकारी को व्यवहार में लाने में ही व्यतीत होता है ।
अत: इस सम्बन्ध में वे उचित परामर्श ही देंगे । स्पष्ट है कि कर्मचारियों के अनुभव से पृथक् तय की गई कोई भी नीति निश्चय ही अनुभवहीन व हानिकारक होगी ।
पिफनर के अनुसार राजनीतिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों में पर्याप्त अन्तर होते हुए भी उनके मध्य एक सीधी विभाजक रेखा खींच पाना सम्भव नहीं है वरन् उनके मध्य पर्याप्त घनिष्ठता ही दृष्टिगोचर होती है ।
पिफनर के अनुसार राजनीतिक एवं प्रशासनिक अधिकारियों के मध्य निम्नलिखित आधारों पर अन्तर किया जा सकता है:
(i) राजनीतिक अधिकारी विशिष्ट ज्ञान से रहित होता है, जबकि प्रशासनिक अधिकारी को विशिष्ट ज्ञान से युक्त होना आवश्यक है ।
(ii) राजनीतिक अधिकारी किसी राजनीतिक दल से सम्बन्धित होता है, प्रशासनिक अधिकारी किसी राजनीतिक दल से सम्बन्धित नहीं होता है ।
(iii) राजनीतिक अधिकारी अवैतनिक होता है, जबकि प्रशासकीय अधिकारी वैतनिक होता है ।
(iv) राजनीतिक अधिकारी का कार्य नीति निर्धारण तथा प्रशासकीय अधिकारी का कार्य नीति क्रियान्त्रयन से है ।
(v) राजनीतिक अधिकारी कुछ काल के लिये अस्थायी रूप से निर्वाचित होता है, जबकि प्रशासकीय अधिकारी की नियुक्ति योग्यता के आधार पर स्थायी रूप से की जाती है ।
(vi) राजनीतिक अधिकारी का कार्य निर्णय देना है, जबकि प्रशासकीय अधिकारी का कार्य परामर्श देना मात्र है ।
(vii) राजनीतिक अधिकारी लोकमत से तथा प्रशासकीय अधिकारी आंकड़ों आदि से अधिक प्रभावित होता है ।
(viii) राजनीतिक अधिकारी को विभिन्न कार्य करने पड़ते हैं, जबकि प्रशासकीय अधिकारी का कार्य केवल लोक-कल्याण सम्बन्धी कार्य सम्पन्न करना होता है ।
उपर्युक्त वर्णित ये अन्तर प्रशासन व राजनीति को एक-दूसरे से पृथक् नहीं करते हैं । यदि दोनों को पृथक् करने का प्रयास किया भी जाये तब भी दोनों कई स्थानों पर परस्पर मिलते प्रतीत होते है । दोनों के मध्य एक स्पष्ट विभाजक रेखा खींच पाना सम्भव नहीं है ।
अत: कहा जा सकता है कि समन्वय-दृष्टिकोण राजनीति एवं प्रशासन के मध्य अन्योन्याश्रित सम्बन्ध को स्वीकार करता है ।
UN-OPEX Programme जो नेपाल आदि देशों में चल रहा है, वह भी लोक प्रशासन एवं अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के गठबन्धन का प्रतीक है ।
लोक प्रशासन एवं कानून (Public Administration and Law):
यदि राजनीति विज्ञान के माध्यम से लोक प्रशासन को सैद्धान्तिक आधार प्राप्त होता है तो कानून उसका प्रक्रियात्मक (Functional) ढाँचा तैयार करता है । वुडरो विल्सन के अनुसार- ”लोक प्रशासन विधि अथवा कानून को विस्तृत एवं क्रमबद्ध रूप में कार्यान्वित करने का नाम है ।”
लोक प्रशासन एवं कानून के घनिष्ठ सम्बन्ध को निम्नलिखित आधारों पर स्पष्ट किया जा सकता है:
(1) लोक प्रशासन, कानून द्वारा मर्यादित (Public Administration in the Limitations of Law):
प्रशासकीय अधिकारी कानून की मर्यादा में रहकर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करते हैं कर्त्तव्य विमुख होने अथवा कानून का उल्लंघन करने पर प्रशासकों को न्यायिक कार्यवाही का सामना करना पड़ सकता है । प्रशासक केवल वही कार्य सम्पन्न कर सकते हैं जोकि कानून-सम्मत हों इस प्रकार कानून प्रशासकों के कार्यों को मर्यादित करता है ।
(2) प्रशासन की कानून-निर्माण में भूमिका (Role of Administration in Law-Making):
आधुनिक लोकतन्त्रों में विधिनिर्माण की प्रक्रिया में प्रशासन की महत्वपूर्ण भूमिका निहित रहती है । प्रशासकीय अधिकारी अपने विभागीय अनुभवों के आधार पर कानून-निर्माण सम्बन्धी प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं । कार्य करने की सुविधा को दृष्टिगत रखते हुए कुछ नये कानूनों का निर्माण आवश्यक हो जाता है ।
मन्त्रियों द्वारा भी ऐसे कानूनों की उपेक्षा नहीं की जा सकती है । इस प्रकार कुछ कानून प्रशासकों की आवश्यकता पूर्ति हेतु एवं उनके प्रभाव से पारित किये जाते हैं ।
(3) प्रशासन द्वारा कानून की क्रियान्विति (Implementation of Law by Administration):
कानून-निर्माण का कार्य व्यवस्थापिका द्वारा किया जाता है । तत्पश्चात् कार्यपालिका द्वारा उनको सम्बन्धित प्रशासकीय विभागों तक पहुँचा दिया जाता है । इन कानूनों को कार्यान्वित कराने का उत्तरदायित्व लोक प्रशासन पर ही होता है । इसी तथ्य का समर्थन करते हुए वुडरो विल्सन ने लिखा है कि- ”सार्वजनिक कानून को विस्तृत एवं व्यवस्थित रूप से कार्यान्वित करने का नाम ही लोक प्रशासन है ।”
(4) प्रशासन की कानून पर निर्भरता (Dependency of Administration on Law):
यद्यपि कानून-निर्माण एवं कानून की व्याख्या करने में प्रशासन का पूर्ण हाथ रहता है तथापि यह भी सत्य है कि प्रशासन पूर्णरूपेण कानून का अनुचर है तथा कानून की परिधि के अन्दर ही अपने दायित्वों का निर्वाह करता है । अपने कार्यों एवं दायित्वों का निर्वाह करने में प्रशासन कानून की सीमाओं के अन्तर्गत रहकर ही कार्य करता है ।
(5) हस्तान्तरित विधान का अधिकार (Right Related to Delegated Legislation):
व्यवस्थापिका द्वारा कानून की केवल रूपरेखा तैयार की जाती है कानून के विस्तृत विवरण से सम्बन्धित नियमों एवं उपनियमों को बनाने प था उनको व्यावहारिक रूप देने का उत्तरदायित्व प्रशासन का ही होता है । प्रशासन के इस अधिकार को ही ‘हस्तान्तरित विधान’ अथवा ‘प्रदत्त व्यवस्थापन’ कहा जाता है ।
अत: स्पष्ट है कि कानून व लोक प्रशासन के मध्य निकट का सम्बन्ध है । कतिपय विषय लोक प्रशासन एवं विधिशास्त्र के विद्यार्थियों को समान रूप से पढ़ाए जाते हैं । इसके अतिरिक्त कुछ देशों में विधिशास्त्र के पाठ्यक्रम के अन्तर्गत ही लोक प्रशासन का अध्ययन किया जाता है किन्तु इसका यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि प्रशासन एक वैधानिक विषय है । वास्तविकता यह है कि प्रशासनिक आवश्यकताओं एवं परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए ही विधिनिर्माण किया जाता है ।
लोक प्रशासन एवं इतिहास (Public Administration and History):
लोक प्रशासन एवं इतिहास में निकट का सम्बन्ध है किसी भी देश के प्रशासन का अध्ययन करने हेतु प्रशासनिक विकासक्रम का समुचित ज्ञान होना आवश्यक है और इसके लिये स्वाभाविक रूप से इतिहास का सहारा लेना पड़ता है इतिहास लोक प्रशासन को अतीत की असफलताओं में सुधार लाने की प्रेरणा देता है ।
साथ ही भावी योजनाओं के निर्माण एवं क्रियान्वयन की दिशा में भी महत्वपूर्ण निर्देश इतिहास के माध्यम से ही प्राप्त होते हैं ।
लोक प्रशासन एवं इतिहास के पारस्परिक सम्बन्धों की विवेचना अग्रलिखित रूप में की जा सकती है:
(i) इतिहास, प्रशासकों का पथ-प्रदर्शक (History as a Guide of Administrators):
इतिहास के अध्ययन से ही ज्ञात होता है कि अतीत में प्रशासकों की किन गलतियों के दुष्परिणाम हुए एवं किन शासकों ने आदर्श प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की तथा किस प्रकार की प्रशासनिक व्यवस्था आदर्श प्रशासनिक व्यवस्था कहलाई ।
अतीत के अनुभवों की सहायता से वर्तमान की प्रशासनिक समस्याओं के समा धान खोजने में सहायता मिलती है । उदाहरणार्थ भारतीय प्रशासन में हड़प्पा, मोहनजोदड़ो से लेकर ब्रिटिश भारत एवं तदुपरान्त स्वतन्त्र भारत के प्रशासन के स्वरूप का अध्ययन कर आवश्यक सामग्री प्राप्त की जाती है ।
(ii) इतिहास प्रयोगशाला के समान (History Like a Laboratory):
इतिहास मानवीय अनुभवों एवं अनुभूतियों की एक प्रयोगशाला है । सभी सामाजिक विज्ञानों का आकलन इन्हीं ऐतिहासिक अनुभवों की पृष्ठभूमि में सम्भव हो सकता है । लोक प्रशासन भी इसका अपवाद नहीं है क्योंकि लोक प्रशासन की समस्याएँ भी उतनी ही प्राचीन हैं जितने प्राचीन राज्य हैं ।
किसी भी देश का प्रशासन विकास के किन चरणों से होकर गुजरा तथा किन परिस्थितियों में क्या परिवर्तन हुए का अध्ययन कर भावी लोक प्रशासन का आधार तैयार किया जाता है ।
(iii) प्रशासन सम्बन्धी ऐतिहासिक साम्य (History Books on Administration):
इतिहास के प्रसिद्ध ग्रन्थों से भी प्रशासकों का दिशा-निर्देश होता है । उदाहरणार्थ- कौटिल्य का ‘अर्थशास्त्र’, अबुल फजल का ‘आइने-अकबरी’ व ‘अकबरनामा’ आदि ग्रन्थों से भारतीय प्रशासन के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है ।
विभिन्न ऐतिहासिक अन्यों के माध्यम से ही अशोक की शासन-व्यवस्था, अलाउद्दीन खिलजी की आर्थिक नीति, मुहम्मद तुगलक की योजनाओं, अकबर की शासन-व्यवस्था एवं अन्य कालों की भी केन्द्रीय एवं प्रान्तीय शासन व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त होता है यह ज्ञान आधुनिक प्रशासन के भवन का निर्माण करने में सहायक सिद्ध होता है ।
(iv) तत्कालीन समस्याओं का अध्ययन (Study of Contemporary Problems):
ऐतिहासिक ग्रन्थों के माध्यम से तत्कालीन इतिहास की विभिन्न समस्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है । इतिहास की सहायता से हम उन समस्याओं को उचित सन्दर्भ में रखकर अध्ययन करना सीखते हैं क्योंकि प्रशासनिक समस्याएँ परिस्थितियों के अनुरूप परिवर्तित एवं विकसित होती रहती हैं इस प्रकार इतिहास के सन्दर्भ में प्रशासन की समस्याओं का समाधान खोजना कहीं अधिक सरल होता है ।
(v) इतिहास द्वारा लोक प्रशासन को चेतावनी (Warning to Public Administration by History):
इतिहास के अध्ययन से ही यह जानकारी प्राप्त होती है कि किन कारणों से अनेक सभ्यताओं का पतन हुआ इस प्रकार इतिहास यह चेतावनी देता है कि प्रशासन के क्षेत्र में अतीत की उन घटनाओं को न दोहराया जाये जो कि पतन का कारण सिद्ध हुई ।
ऐतिहासिक तथ्य यह भी सिद्ध करते हैं कि जब कभी प्रशासन ने मानवीय हितों व अधिकारों की उपेक्षा की तभी जनता द्वारा सरकार व प्रशासन के विरुद्ध विद्रोह किया गया । अत: इतिहास से शिक्षा लेते हुए इस प्रकार की त्रुटियों से बचना चाहिये ।
(vi) इतिहास द्वारा लोक प्रशासन के भविष्य का निर्माण (Building of the Future of Public Administration by History):
इतिहास लोक प्रशासन के भविष्य का निर्माण करता है । जहाँ एक ओर अतीत में असफल रही नीतियों का बहिष्कार किया जाता है वहीं दूसरी ओर अतीत व वर्तमान की परिस्थितियों का तुलनात्मक अध्ययन करने के पश्चात् वर्तमान में अतीत की असफल रही नीतियों का भी समर्थन किया जाता है ।
उदाहरणार्थ- अतीत में कुछ कुप्रथाओं को रोकने हेतु अधिनियम नहीं बनाये जा सके किन्तु वर्तमान में ऐसा किया जाना सम्भव हो सका । ऐतिहासिक घटनाएं ही प्रेरणा प्रदान करती हैं कि भविष्य में प्रशासन को किस प्रकार ‘लोक कल्याणकारी’ स्वरूप प्रदान किया जा सकता है ?
(vii) इतिहास के बिना लोक प्रशासन की सफलता संदिग्ध (Success of Public Administration is Uncertain without History):
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के अभाव में लोक प्रशासन की सफलता संदिग्ध बनी रहती है । कौन-सी नीति किन परिस्थितियों में सफल हो सकती है इसका ज्ञान इतिहास ही कराता है । इतिहास के माध्यम से ही यह जानकारी प्राप्त होती है कि किस देश में तथा किस संस्कृति में कौन सी शासन प्रणाली सफल सिद्ध हुई किसी भी देश की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से परिचित हुए बिना उस देश की प्रशासनिक व्यवस्था की सही रूपरेखा तैयार कर पाना एक दुष्कर कार्य है ।
वस्तुत: इतिहास मानवीय अनुभवों का एक विशाल भण्डार है । लोक प्रशासन के विकास उसकी सफलता एवं प्रगति के लिये इतिहास का सहयोग एवं समर्थन अत्यावश्यक है ।
लोक प्रशासन एवं मनोविज्ञान (Public Administration and Psychology):
लोक प्रशासन समाज में मानवीय प्रक्रियाओं का अध्ययन है, जबकि मनोविज्ञान समाज में मानवीय आचरण एवं मानवीय व्यवहार का अध्ययन है ।
इस प्रकार दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध होना स्वाभाविक है जिसका विवेचन निम्नलिखित रूप में किया जा सकता है:
(1) लोक प्रशासन मनोवैज्ञानिक तत्वों से प्रभावित (Public Administration Influenced by Psychological Factors):
प्रत्येक सामाजिक विज्ञान मानवीय प्रक्रियाओं से सम्बन्धित होने के कारण मनोवैज्ञानिक तत्वों से अप्रभावित नहीं रह सकता है । लोक प्रशासन में भी मानवीय तत्वों का महत्व निरन्तर बढ़ रहा है ।
आज इस दृष्टिकोण का कोई महत्व नहीं रह गया है कि लोक प्रशासकों के मध्य केवल वैधानिक सम्बन्ध ही होने चाहिये वर्तमान में इस तथ्य को स्वीकार कर लिया गया है कि मानव व्यवहार केवल औपचारिक प्रयत्नों से नहीं वरन् मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के सहयोग से ही नियन्त्रित किया जा सकता है ।
(2) मनोविज्ञान लोकमत को समझने में सहायक (Psychology is Helpful in Understanding Public Opinion):
मनोविज्ञान लोक प्रशासन को एक विशेष दिशा में चलने की प्रेरणा देता है । प्रशासकों की नियुक्ति भी मनोवैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर की जाती है । बच्चों की शिक्षा-व्यवस्था, अपराधियों में सुधार लाना आदि कार्य मनोवैज्ञानिक आधार पर ही किये जाते हैं । आज लोक प्रशासन सार्वजनिक स्वरूप ग्रहण कर चुका है उनका प्रमुख लक्ष्य सहयोगी एवं अराजक नागरिकों के मध्य उचित समन्वय स्थापित करना होता है । अराजक प्रवृत्तियों को मनोवैज्ञानिक आधार पर ही सुधारने की चेष्टा की जाती है ।
(3) प्रशासन में मनोवैज्ञानिक समस्याओं का समावेश (Union of Psychological Problems with Administration):
डॉ. एम.पी. शर्मा के अनुसार- ”प्रशासन में प्रोत्साहन, प्रतिष्ठा एवं मनोबल की समस्याएं-मूलत: मनोवैज्ञानिक समस्याएं ।” कार्मिकों के चयन हेतु मनोवैज्ञानिक परीक्षाओं का आयोजन किया जाता है । साथ ही मनोवैज्ञानिक धारणाएँ कार्मिक प्रशासन को व्यापक रूप से प्रभावित करती हैं । प्रशासन से सम्बन्धित विविध पक्षों के मध्य समुचित मनोवैज्ञानिक सम्बन्धों की स्थापना आज एक अहम् प्रश्न बन चुका है ।
(4) लोक प्रशासन मानव व्यवहार से सम्बन्धित (Public Administration is Related to Human Behaviour):
लोक प्रशासन का सम्बन्ध विशेष रूप से मानव व्यवहार से है । यद्यपि यह बता पाना कठिन है कि किसी परिस्थिति विशेष में कोई व्यक्ति किस प्रकार का व्यवहार करेगा, किन्तु फिर भी मनोवैज्ञानिक विश्लेषणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यक्ति विशेष परिस्थितियों में किस प्रकार का व्यवहार करेगा ? लोक प्रशासन में लोक सम्पर्क मनोवैज्ञानिक भावना से प्रेरित होता है । जनता के मनोविज्ञान को समझ पाना ही लोक प्रशासन की सफलता की कसौटी है ।
निस्संदेह, लोक प्रशासन एवं मनोविज्ञान की पारस्परिक निर्भरता से इन्कार नहीं किया जा सकता है ।
लोक प्रशासन एवं अर्थशास्त्र (Public Administration and Economics):
प्रारम्भ में राज्य का स्वरूप एक पुलिस-राज्य के रूप में था, किन्तु राज्य का स्वरूप लोक कल्याणकारी हो जाने पर आर्थिक समस्याएँ अधिकाधिक महत्वपूर्ण होती गईं और इसके साथ ही लोक प्रशासन एवं अर्थशास्त्र के सम्बन्ध भी निकट होते चले गये । इस निकटता का आकलन निम्नलिखित तथ्यों के आधार पर किया जा सकता है ।
(1) प्राचीनकाल से सम्बन्ध (Relations Since Ancient Times):
लोक प्रशासन व अर्थशास्त्र के मध्य प्राचीनकाल से ही घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसका प्रमाण कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से मिलता है । इस ग्रन्थ में प्रशासन एवं आर्थिक सम्बन्धों की घनिष्ठता का परिचय प्राप्त होता है । आधुनिक युग में राज्य का स्वरूप लोक कल्याणकारी हो जाने पर लोक प्रशासन व अर्थशास्त्र के सम्बन्ध और भी गहरे हो गये हैं ।
(2) प्रशासकीय नीति का मूल्यांकन आर्थिक परिणामों के आधार पर (Evaluation of Administrative Policy on the Basis of Economics Results):
आज प्रशासन का सर्वोपरि उद्देश्य देश का आर्थिक विकास करना होता है । वर्तमान में सरकार की प्राय: सभी नीतियों का स्वरूप आर्थिक होता है । प्रशासन के लिये आर्थिक समस्याओं को समझना एवं उनका हल निकालना परमावश्यक होता है । आज के प्रशासन की आर्थिक जिम्मेदारियाँ प्राचीन काल की जिम्मेदारियों से अधिक हैं ।
(3) पंचवर्षीय योजनाएँ (Five Year Plans):
पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश को आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर करने का प्रयास प्रशासन द्वारा किया जा रहा है । इन योजनाओं के माध्यम से जहाँ एक ओर आर्थिक समस्याओं के समाधान का प्रयास किया जा रहा है वहीं दूसरी ओर समाज के लिये उपयोगी लोक प्रशासन की स्थापना के प्रयत्न भी जारी हैं । विशेषज्ञों के अनुसार प्रशासन को वैज्ञानिक स्वरूप प्रदान किये बिना आर्थिक नीतियों का कार्यान्वयन सम्भव नहीं है ।
(4) आर्थिक उत्तरदायित्वों में वृद्धि (Increase in Economic Responsibilities):
वर्तमान युग में अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अन्तर्राष्ट्रीय विकास बैंक एवं यूरोपीय साझा बाजार आदि की स्थापना के परिणामस्वरूप प्रत्येक देश में आर्थिक प्रश्नों के सम्बन्ध में लोक प्रशासन के उत्तरदायित्व के निरन्तर बढ़ते जाने की सम्भावना है । अतएव लोक प्रशासन एवं अर्थशास्त्र का गठबन्धन भी दृढ़तर होता जायेगा ।
(5) परस्पर विरोधी आर्थिक हितों के मध्य प्रशासन द्वारा सन्तुलन (Equilibrium between Opposite Economic Interests by Administration):
वर्तमान में विभिन्न शक्ति गुटों के द्वारा अपने-अपने आर्थिक लाभ के लिये राज्य से माँग की जाती है । इनमें से अधिकांश माँगे परस्पर विरोधी होती हैं । उदाहरणार्थ- मजदूर अधिक वेतन चाहते हैं, जबकि पूँजीपति अधिकाधिक लाभ अपने पास रखना चाहते हैं । इन परस्पर विरोधी माँगो के मध्य सन्तुलन स्थापित कर देश को आर्थिक प्रगति के मार्ग पर अग्रसर करना प्रशासन का कर्तव्य है ।
(6) नवीन आर्थिक विचारों का प्रशासन पर प्रभाव (Impact of New Economic Views on Administration):
राज्य के द्वारा नये व्यावसायिक क्षेत्रों में प्रवेश के परिणामस्वरूप ‘सार्वजनिक निगम’ (Public Corporation) जैसे प्रशासकीय संगठन अस्तित्व में आये । राज्य द्वारा व्यक्तिगत कार्यों एवं व्यक्तिगत सम्पत्ति का नियमन करना आरम्भ किया गया जिसके परिणामस्वरूप न्यायालयों की नई पद्धति ‘प्रशासकीय न्यायाधिकरण’ का प्रादुभाव हुआ ।
राज्य की आर्थिक जिम्मेदारियाँ बढ़ने के साथ-साथ प्रशासन के एक नये उप-विषय ‘आर्थिक प्रशासन’ का विकास होता चला गया । इसी आधार पर देश में ‘आर्थिक एवं औद्योगिक सिविल सेवा’ के निर्माण का प्रस्ताव रखा जा रहा है ।
सम्पूर्ण विवेचन के आधार पर यह कहना सर्वथा उपयुक्त ही होगा कि वर्तमान युग में अर्थशास्त्र लोक प्रशासन का आधार बन गया है प्रत्येक प्रशासकीय नीति आर्थिक आधार को दृष्टिगत रखकर ही तैयार की जाती है । अर्थशास्त्र का ज्ञान रखने पर ही कोई प्रशासक सफल हो सकता है ।
लोक प्रशासन एवं समाजशास्त्र (Public Administration and Sociology):
समाज का ज्ञान प्रदान करने वाला शास्त्र ‘समाजशास्त्र’ कहलाता है । समाजशास्त्र समूह के सदस्य के रूप में मानव व्यवहार का अध्ययन करता है । लोक प्रशासन समाज में स्थित व्यक्तियों के प्रशासकीय व्यवहार का अध्ययन करता है समाज की वास्तविकता को समझे बिना लोक प्रशासन के महत्व को नहीं समझा जा सकता है । स्वाभाविक रूप से दोनों ही विषयों में निकट का सम्बन्ध दृष्टिगोचर होता है ।
समाजशास्त्र व लोक प्रशासन में सामान्यतया निम्नलिखित बिन्दुओं पर समानता के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं:
(i) समाज का अध्ययन (Study of Society):
समाजशास्त्र समाज का विज्ञान है । यह मानव जाति के सम्बन्ध में उत्पन्न समाज की घटनाओं का अध्ययन करता है । लोक प्रशासन का उद्देश्य समाज का अधिकतम कल्याण करना है । इस उद्देश्य की पूर्ति त भी सम्भव है जबकि प्रशासकों को समाज का पूर्ण ज्ञान प्राप्त हो । अत: समाज का ज्ञान प्राप्त करने के लिये लोक प्रशासन में रुचि रखने वाले विद्वानों को समाजशास्त्र का अध्ययन करना आवश्यक है ।
(ii) सामाजिक सम्बन्धों का अध्ययन (Study of Social Relationship):
लोक प्रशासन एवं समाजशास्त्र दोनों विषयों का सम्बन्ध मानव जाति से है । लोक प्रशासन की सफलता मानवीय सम्बन्धों की कुशलता पर निर्भर करती है तथा समाजशास्त्र में मानवीय सम्बन्धों का अध्ययन किया जाता है । समाजशास्त्र के अन्तर्गत सामाजिक सम्बन्धों का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही लोक प्रशासन की रूपरेखा का निर्माण किया जा सकता है ।
जैसा कि जॉर्ज सिमेल ने भी लिखा है- ”समाजशास्त्र मानवीय अन्त सम्बन्धों के स्वरूपों के ज्ञान के आधार पर ही लोक प्रशासन के सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है ।” उदाहरणार्थ- भारत में बिहार जैसे जातीय कुंठाओं से ग्रसित राज्यों में समाज के आयाम को समझना आवश्यक है ।
(3) सामाजिक जीवन एवं घटनाओं का अध्ययन (Study of Social Life and Events):
लोक प्रशासन के सिद्धान्तों का निर्माण सामाजिक जीवन एवं घटनाओं को दृष्टिगत रखकर ही किया जाता है । सामाजिक जीवन को शांतिमय एवं सुव्यवस्थित बनाने हेतु ही कतिपय नियम निर्मित किये जाते हैं ।
इसके साथ ही सामाजिक घटनाओं से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान करने के लिये ही लोक प्रशासन के नियमों, उपनियमों व सिद्धान्तों का निर्माण किया जाता है । रिग्स की पुस्तक ‘लोक प्रशासन का पर्यावरण’ समाजशास्त्र को लोक प्रशासन के निकट लाती है ।
उपर्युक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि समाजशास्त्र एवं लोक प्रशासन में गहरा सम्बन्ध है ।
लोक प्रशासन एवं नीतिशास्त्र (Public Administration and Ethics):
समाज के अन्दर व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्ध किस प्रकार के होने चाहिये तथा उनमें स्थायित्व किस प्रकार लाया जाना चाहिये इसका अध्ययन नीतिशास्त्र के अन्तर्गत किया जाता है नीतिशास्त्र (आचारशास्त्र) वह मानदण्ड निर्धारित करता है जिनके आधार पर किसी भी मानवीय क्रिया का मूल्यांकन किया जाता है ।
इसी प्रकार लोकतन्त्र में वही प्रशासन अधिक समय तक रह पाता है जिसके उद्देश्य आचारसंहिता के अनुकूल होते हैं ।
लोक प्रशासन एवं नीतिशास्त्र में निम्नलिखित समानताएँ दृष्टिगोचर होती हैं:
(1) नैतिकता पर आधारित (Based on Morality):
जिस प्रकार नैतिकता के अभाव में स्वस्थ समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है उसी प्रकार नैतिकता के अभाव में लोक कल्याणकारी प्रशासन की आशा करना व्यर्थ है । प्रशासन के लक्ष्य अनैतिक होने पर उसके दीर्घजीवी होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है वर्तमान लोकतान्त्रिक युग में लोक प्रशासन साधन है तथा नैतिकता साध्य है । सफल प्रशासन के लिये आवश्यक है कि वह नीतिशास्त्र के नियमों के अनुकूल हो । हल एवं मैकियावली आदि के अनुसार साध्य तो नैतिकता ही है लोक प्रशासन केवल साधन मात्र है ।
(2) व्यक्ति का चरित्र (Character of the Individual):
नीतिशास्त्र में व्यक्ति के चरित्र पर विशेष बल दिया जाता है सदाचार सम्बन्धी गुणों का वर्णन नीतिशास्त्र में किया जाता है । सदाचारी व्यक्ति ही अपने गुणों के कारण सफल योग्य एवं कुशल प्रशासक सिद्ध हो सकते हैं । अत: नीतिशास्त्र का लोक प्रशासन में महत्वपूर्ण योगदान है अन्य शब्दों में नीतिशास्त्र ही सफल एवं जनप्रिय लोक प्रशासन का आधार है ।
(3) प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं नैतिकता का अध्ययन (Study of Customs and Rites):
प्रथाओं, रीति-रिवाजों एवं नैतिकता के मानदण्डों आदि का वर्णन नीतिशास्त्र में किया गया है नीतिशास्त्र में वर्णित ये मानदण्ड सामाजिक नियन्त्रण के महत्वपूर्ण एवं कारगर साधन हैं । इसके साथ ही ये साधन लोक प्रशासन की अनुशासन सम्बन्धी समस्याओं का समाधान करने में भी सहायक होते हैं ।
(4) स्वतन्त्रता, समानता एवं विश्व-कधुत्व की भावनाएँ स्वतन्त्रता, समानता एवं विश्व-बन्धुत्व आदि की भावनाएँ मानवता से सम्बन्धित हैं । नीतिशास्त्र के अन्तर्गत इन सभी भावनाओं का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है । लोक प्रशासन में ‘कल्याणकारी राज्य’ के आदर्श का प्रादुर्भाव इन्हीं भावनाओं के आधार पर हुआ । अत: नीतिशास्त्र लोक प्रशासन के लिये एक पथप्रदर्शक के रूप में कार्य करता है डॉ. एपिलवी के अनुसार- ”नैतिकता की भावना कर्मचारियों में आत्म नियन्त्रण से आरम्भ होती है ।”
अतएव स्पष्ट है कि वर्तमान युग में मानवता से सम्बन्धित शास्त्र ‘नीतिशास्त्र’ की आचार संहिता का अनुकरण करके लोक प्रशासन जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतर सकता है ।
लोक प्रशासन एवं भूगोल (Public Administration and Geography):
लोक प्रशासन एवं भूगोल का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है ।
इस सम्बन्ध को निम्नांकित रूप में स्पष्ट किया जा सकता है:
(1) भौगोलिक परिस्थितियों का जीवन-प्रणाली पर प्रभाव (Effect of Geographical Conditions on Life-Style):
किसी भी स्थान विशेष की भौगोलिक परिस्थितियों का वहाँ के निवासियों की जीवन-शैली पर व्यापक प्रभाव पड़ता है व्यक्तियों के खान-पान रहन सहन आदि में भौगोलिक विभिन्नता के साथ ही भिन्नता के लक्षण दृष्टिगोचर होते हैं । उसी भिन्नता को दृष्टिगत रखते हुए लोक कल्याणकारी राज्य में प्रशासन के लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं ।
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(2) परिस्थितिमूलक दृष्टिकोण (Ecological Approach):
फ्रेड रिग्स ने प्रशासन में स्थानीय परिस्थितियों के अध्ययन पर बल देते हुए ‘परिस्थितिमूलक दृष्टिकोण’ को अपनाने पर बल दिया । फ्रेंच विचारक मॉण्टेस्क्यू ने भी यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि किसी भी देश की शासन पद्धति प्रधान रूप से उसके भूगोल से निर्धारित होती है ।
इस तथ्य की पुष्टि द्वितीय विश्व युद्ध के उपरान्त उस समय हुई जबकि विशेषज्ञों ने संयुक्त राष्ट्र संघ के द्वारा चलाये जाने वाले आर्थिक विकास से सम्बन्धित तकनीकी कार्यक्रम को संयुक्त राज्य अमेरिका में सफल सिद्ध होने के बाद तृतीय विश्व के विकासशील देशों में लागू करने का प्रयास किया किन्तु स्थानीय परिस्थितियों एवं भौगोलिक तत्वों के कारण उनमें परिवर्तन करना पड़ा ।
अत: स्पष्ट है कि भौगोलिक परिस्थितियाँ भी प्रशासनिक नीतियों एवं निर्णयों को प्रभावित करती हैं ।
उपर्युक्त सम्पूर्ण विश्लेषण के उपरान्त निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि लोक प्रशासन का सम्बन्ध न्यूनाधिक रूप में अन्य सभी सामाजिक विज्ञानों से है । अन्य सामाजिक विज्ञानों से सम्बन्ध स्थापित किये बिना इसका अध्ययन अपूर्ण है । सभी सामाजिक विज्ञानों में लोक प्रशासन राजनीति विज्ञान के सर्वाधिक निकट है । वर्तमान में लोक प्रशासन पर विज्ञान व तकनीकी (Science and Technology) का भी व्यापक प्रभाव पड़ा है ।