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Read this article in Hindi to learn about:- 1. Introduction to Responsive Administration 2. Meaning and Definitions of Responsive Administration 3. Indicators.
उत्तरदायी प्रशासन से आसय (Introduction to Responsive Administration):
एक सुशासन अथवा उत्तरदायी शासन की स्थापना के लिए मनुष्य सदैव से प्रयासरत रहा है । सभ्यता के प्रारम्भिक चरण पर दृष्टिपात करने से भी यह सिद्ध हो जाता है ।
प्रारम्भ में ‘राज्य’ व ‘सुशासन’ को एक-दूसरे का पर्यायवाची मानने के कारण शब्दावली का भेद अवश्य रहा किन्तु अन्तर्निहित इच्छा सदैव से यही रही है कि प्रशासनिक बागडोर ऐसे व्यक्तियों के हाथों में हो जो कि अपने क्षेत्र में योग्य, प्रशिक्षित, विशेषज्ञ एवं विवेकयुक्त होने के साथ-साथ स्वार्थरहित एवं जनता के प्रति पूर्णरूपेश उत्तरदायी हों ।
प्लेटो, हॉब्स, लॉक रूसो एवं महात्मा गाँधी आदि सभी विचारक इसी मान्यता के समर्थक रहे हैं । कौटिल्य ने ‘अर्थशास्त्र’ में राजा के कर्त्तव्यों से सम्बन्धित जो मानदण्ड निर्धारित किये हैं उनसे भी ‘सुशासन’ अथवा ‘उत्तरदायी’ शासन का बोध होता है ।
मध्ययुगीन इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि जब कभी राजा ने निरंकुशता का मार्ग अपनाया या जनता के अधिकारों की अवहेलना की, उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ी । ऐसे अवसरों का भी अभाव नहीं रहा, जबकि संगठित न होने के कारण जनता ने चुपचाप अत्याचार सहे किन्तु इस स्थिति में कहीं-न-कहीं विद्रोह की भावना को जन्म दिया और जिसका प्रस्फुटन ‘सुशासन’ अथवा ‘उत्तरदायी शासन’ की माँ के रूप में हुआ । भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्टतया परिलक्षित होता है । स्वतन्त्रोतर भारत में भी जन सहभागिता में वृद्धि हुई है तथा ‘उत्तरदायी प्रशासन’ की माँग यथावत कायम है ।
सुशासन को किसी निश्चित सीमा रेखा में नहीं बाँधा जा सकता है । यह एक गतिशील अवधारणा है । सुशासन के अन्तर्गत बहुत से पहलू समाहित होते हैं यथा राजनीतिक सामाजिक एवं आर्थिक क्षेत्रों में तीव्र एवं अनुकूल प्रगति तथा इसके साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश को भी मद्देनजर रखते हुए जनहितार्थ अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की स्थापना आदि । परिवर्तित परिस्थितियों में ‘सुशासन’ अथवा ‘उत्तरदायी शासन’ की परिभाषा में भी परिवर्तन आना स्वाभाविक है ।
सुशासन अथवा उत्तरदायी शासन: अर्थ एवं परिभाषाएँ (Good Governance or Responsive Administration: Meaning and Definitions):
जनकल्याणकारी एवं जनता के प्रति उत्तरदायी शासन को ही ‘सुशासन’ की संज्ञा दी जा सकती है अन्य शब्दों में सुशासन का निकट सम्बन्ध ‘सामान्य हित’ से है । निस्संदेह ‘सामान्य’ शब्द से तात्पर्य व्यक्तिगत हितों से नहीं वरन् ‘अधिकतम लोगों के अधिकतम हित’ से है ।
भारतीय अवधारणा में अधिकतम का अर्थ अत्यन्त व्यापक है जिसमें विश्वव्यापी हित को सम्मिलित माना जाता है जबकि पाश्चात्य विचारधारा में ‘विश्वव्यापी हित’ को अपवादस्वरूप ही स्वीकार किया जाता है । लोक हित की अपेक्षा सामान्य हित का क्षेत्र अधिक व्यापक होता है क्योंकि लोक हित से तात्पर्य समस्त लोगों का हित नहीं वरन् अधिकांश लोगों का हित है ।
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सुशासन का आशय जे. एस. मिल के इन शब्दों से व्यक्त होता है- ”किसी सरकार की अच्छाई को देखने की एक विधि है कि शासन संचालन में कितनी अच्छाई को काम में लेनी है ?”
मिनोचा के मतानुसार- “सद्शासन वह है जहाँ राजनीतिक उत्तरदायित्व, स्वतन्त्रता की उपलब्धि, कानूनपालक, नौकरशाही उत्तरदायित्व, सूचना में पारदर्शिता, जो प्रभावी एवं कुशल और सरकार तथा समाज में सहयोह हो ।”
पनन्दीकरण के शब्दों में- “सद्शासन का आशय उस राष्ट्र राज्य से है जो जनता को शान्तिपूर्ण, व्यवस्थित, समृद्ध, उचित, सहभागितापूर्ण जीवन व्यतीत करने के लिए निर्देशित करता है ।”
सद्शासन की अवधारणा 1980 और 1990 के दशक में उस समय अवतरित हुई जबकि ‘संरचनात्मक सामंजस्य कार्यक्रम’ (Structural Adjustment Programme) के माध्यम से वृद्ध आर्थिक आर्थिक नीति सुधार कार्यक्रमों का आरम्भ किया गया था । समयानुसार सद्शासन की परिभाषा विस्तृत होती चली गयी ।
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संक्षेप में कहा जा सकता है कि सुशासन से आशय जनता के प्रति उत्तरदायी उस शासन व्यवस्था से है जिसमें निम्नलिखित पहलुओं को सम्मिलित किया जाता है:
(i) उतरदायत्विपूर्ण एत्त्र कार्यकुशल राजनीतिक सत्ता ।
(ii) सत्ता द्वारा देश के आर्थिक व सामाजिक संसाधनों का समुचित प्रबन्ध ।
(iii) सत्ता की नियोजन व कार्यान्वयन की क्षमता ।
(iv) लोकतान्त्रिक मूल्यों का सम्मान ।
(v) प्रशासन में पारदर्शिता एवं जनता के प्रति उत्तरदायी ।
(vi) प्रशासन में सहभागिता ।
(vii) जनता के प्रति सेवा का भाव ।
(viii) मानव अधिकारों में आस्था एवं उनके क्रियान्वयन के प्रति झुकाव ।
सद्शासन के सूचक (Indicators of Good Governance or Responsive Administration):
एल. एन. शर्मा तथा सुस्मिता शर्मा ने कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ को अपने क्षेत्र में सर्वोपरि मानते हुए ग्रन्थ में से सद्शासन के दस सूचकों को चुना है जो इस प्रकार हैं:
(1) राजा द्वारा वैयक्तिक हित का त्याग:
राजा को जनता के प्रति कर्त्तव्यों को सर्वोपरि मानते हुए उनके हित में अपने व्यक्तिगत हित का त्याग करने में संकोच नहीं करना चाहिए । कौटिल्य का सजा निरंकुश नहीं हो सकता वह ‘सप्तांग’ की सलाह पर कार्य करता है वह सहयोगियों के साथ मिलकर जनता के हित में सामूहिक निर्णय लेता है । कौटिल्य ने राजनीति व सरकार के साथ-साथ समाज पर भी प्रतिबन्ध लगाने के लिए कठोर दण्डनीति का प्रावधान किया ।
(2) सार्वजनिक प्रतिबद्धता:
सद्शासन उचित दिशा अर्थात् लोक कल्याण की ओर निर्देशित होना चाहिए तथा उसमें व्यक्तिगत प्रतिबद्धता के स्थान पर सार्वजनिक या सामूहिक प्रतिबद्धता को सर्वोपरि स्थान दिया जाना चाहिए यह खेद का विषय है कि वर्तमान में इसके विपरीत स्थिति दृष्टिगत होती है ।
(3) लक्ष्य की उपेक्षा न करना:
राज्य व शासन को हर प्रकार के अनुचित दबावों से बचते हुए जनकल्याण की ओर लक्ष्योन्मुख होना चाहिए किसी भी व्यक्तिगत हित स्वार्थपरता एवं अन्तर्राष्ट्रीय दबाव के तहत जनहित या जनसेवा के परम लक्ष्य की अवहेलना नहीं की जानी चाहिए । इसी तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए भारत ने उदारीकरण के विरुद्ध आवाज उठाई ।
(4) अनुशासित आचारण:
कौटिल्य ने राजा व मन्त्रीगणों के लिए अनुशासित जीवन तथा आचरणसंहिता की व्यवस्थ की । भारत के प्राय: सभी धर्म-अर्थों का मूल यही है । आज जिस सद्शासन की स्थापना के लिए इतने अधिक प्रयास किये जा रहे हैं, यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि प्राचीन भारत में यह सद्शासन सहज ही विद्यमान था । इसका प्रमुख कारण यह था कि समय शासक व शासित दोनों का ही जीवन अनुशासित तथा चरित्र उन्नत था । इसके विपरीत वर्तमान में दोनों का ही अभाव है ।
(5) निश्चित वेतन:
कौटिल्य ने राजा के लिए निश्चित वेतन का प्रावधान किया । राज परिवार के सदस्यों को निश्चित भत्ता दिया जाता था । भत्ते में वृद्धि करने के लिए मन्त्रिपरिषद की स्वीकृति आवश्यक थी । भारत में स्थिति अत्यन्त चिन्ताजनक है जहाँ कि विधायिका की बिना स्वीकृति के ही प्रधानमन्त्री, मुख्यमन्त्रियों सांसदों एवं विधायकों आदि के वेतन-भत्तों में निरन्तर वृद्धि होती है । जबकि जनता का एक बड़ा हिस्सा भुखमरी का जीवन व्यतीत करता है ।
(6) कानून व्यवस्था की स्थापना:
कौटिल्य के अनुसार- ”राजा को जनता की सेवा के लिए वेतन मिलता है और उसका मुख्य कर्त्तव्य कानून और व्यवस्था बनाये रखना और लोगों के जीवन तथा स्वतन्त्रता की रक्षा करना है ।” कौटिल्य ने यहाँ तक कहा कि यदि किसी नागरिक की सम्पत्ति चोरी होती है तो राजा को अपनी ओर से भुगतान करना चाहिए ।
(7) लेखपाल व लेखकों का महत्व:
कौटिल्य ने लेखपालों व लेखकों को समाज में अत्यन्त उच्च स्थान प्रदान किया । उनके चयन में भी अत्यधिक सावधानी रखी जाती थी क्योंकि उनमें शाही आदेश, विज्ञप्ति आदि लिखने की क्षमता का होना आवश्यक था । वर्तमान में लेखकों व लेखपालों की विशिष्ट योग्यता तथा उन्हें दिये जाने वाले सम्मान दोनों का ही अभाव दृष्टिगोचर होता है ।
(8) कठोर दण्ड व्यवस्था:
कौटिल्य ने भ्रष्ट अधिकारियों एवं प्रशासकीय कर्मचारियों के विरुद्ध कठोर दण्डात्मक कार्यवाही करने का प्रावधान किया । भ्रष्ट अधिकारियों को अनुशासित रखने के लिए नियन्त्रण व निरीक्षण आवश्यक होता है ।
(9) नियुक्ति सम्बन्धी प्रावधान:
कौटिल्य के अनुसार एक लम्बे समय तक पद पर बने रहने से भी अनुशासनहीनता आने की सम्भावना बनी रहती है । अत: समय-समय पर पुराने मन्त्रियों के स्थान पर अधिक योग्य व सक्षम तथा उत्तरदायित्व की भावना से पूर्ण मन्त्रियों की नियुक्ति की जानी चाहिए ।
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(10) योग्यता को प्राथमिकता:
कौटिल्य ने सुशासन हेतु राजा के लिए कतिपय योग्यताओं का निर्धारण किया जो कि इस प्रकार है- बुद्धिसम्पन्न, कर्मठ, नेतृत्व की क्षमता, नैतिक आचरण, योग्य मन्त्रियों के चयन की क्षमता, प्रशासनिक एकरूपता, शीघ्र निर्णय करने की क्षमता आदि ।
कौटिल्य द्वारा स्थापित ये सूचक वर्तमान परिप्रेक्ष्य में भी सार्थक प्रतीत होते हैं ।